इसलिए सीबीएसई में बच्चों को मिलते हैं थोक के भाव मार्क्स, प्राइवेट स्कूलों में CBSE ही क्यों ?

एक ऐसा दौर था जब 80 या 90% पार करने में शहर में बवाल मच जाया करता था, रिश्तेदारी में इतने नंबर लाने वाला हीरो बन जाता था और उसका उदाहरण देकर दूसरे बच्चों की जान आफ़त में डाली जाती थी. अब दसवीं में 500 में से 499 नंबर लाने वाले भी चार बच्चे हैं. और चारों देश के अलग-अलग हिस्सों के. और 12वीं में 90% का आंकड़ा करने वाले भी हज़ारों की तादाद में हैं.
दसवीं के 1.31 लाख बच्चे 90% से ज़्यादा नंबर लाए हैं.

इतने नंबर आ कहां से रहे हैं?
इस साल आए नतीजों में टॉपर की ख़ूब चर्चा हो रही है लेकिन आज नौकरी कर रहे लोग पीछे मुड़कर देखते हैं तो ये सवाल स्वाभाविक हो जाता है कि अब बच्चों के इतने नंबर कैसे आ रहे हैं.
CBSE की 10वीं कक्षा में टॉप करने वाले प्रखर मित्तल ने बीबीसी से बात करते हुए ख़ुद ही कहा था कि उन्हें एक बार तो यकीन ही नहीं हुआ था कि इतने नंबर आ सकते हैं. कुछ ऐसा ही कहना 12वीं टॉपर मेघना श्रीवास्तव का भी है. जानकार कहते हैं कि सीबीएसई की मॉडरेशन पॉलिसी के कारण ऐसा हो रहा है.

मॉडरेशन पॉलिसी है क्या?
सबसे पहले ये समझा जाए कि मॉडरेशन पॉलिसी है क्या? दरअसल, CBSE बोर्ड छात्रों की परीक्षा सवालों के तीन सेट के ज़रिए लेता है. तीन सेट के लिए कठिनाई का स्तर अलग-अलग हो तो बोर्ड इसमें एकरूपता लाने के लिए इसे मॉडरेट या कहें कुछ आसान बनाता है. यही मॉडरेशन पॉलिसी है.
यानी सवालों के कठिन या आसान होने के पैमाने पर किसी छात्र के कुल नंबरों में से निर्धारित प्रतिशत नंबर जोड़ना या घटाना मॉडरेशन है. जांच की प्रक्रिया में एक ही पैमाना अपनाया जाए, यही इसका मक़सद है. सीबीएसई सहित भारत के कुछ राज्य माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में ग्रेस मार्क्स दिए जाने का प्रावधान है. लेकिन ये स्पष्ट नहीं है कि ग्रेस मार्क मॉडरेशन पॉलिसी से किस तरह से अलग है. ग्रेस मार्क्स उन छात्रों को दिए जाते थे जो किसी एक या दो विषय में मामूली नंबरों से फेल हो रहे होते थे. उन्हें 1 से 5 नंबर तक का ग्रेस मिल जाता था और वो अगली कक्षा में चले जाते थे लेकिन मॉडरेशन पॉलिसी उससे अलग है.

सवालों के अलग-अलग सेट के लिए मुश्किलों का अलग पैमाना होता है. कॉपी जांचने वालों के रवैये अलग होते हैं. इस वजह से एक ही जैसा उत्तर लिखने पर भी छात्रों को अलग-अलग मार्किंग होने की संभावना रहती है. इसमें यह भी ख्याल रखा जाता है कि एक छात्र निर्धारित समय के भीतर किस हद तक सवालों को हल कर पाता है.
मसलन एक विषय के सवालों के तीन सेट के लिए कठिनाई का स्तर 90%, 80% और 70% है. बोर्ड इसमें एकरूपता लाने के लिए इसे मॉडरेट करता है. यही मॉडरेशन पॉलिसी है.

सीबीएसई की मॉडरेशन पॉलिसी के तहत 80 से 85 फीसदी नंबर लाने वाले किसी छात्र का स्कोर बढ़कर 95 फीसदी हो सकता है. हालांकि 95 फीसदी या उससे ज्यादा नंबर लाने वाले छात्र को कोई अतिरिक्त नंबर नहीं मिलते हैं. हालांकि बोर्ड ने मॉडिफ़िकेसन पॉलिसी को ख़त्म करने का नोटिफ़िकेशन जारी किया था लेकिन बाद में इसे अभिभावकों से चुनौती मिल गई थी.
बाद में हाईकोर्ट ने केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड को अपनी मॉडरेशन पॉलिसी को बरक़रार रखने का निर्देश दिया था.

मार्किंग और पेपर में बदलाव भी है एक वजह

एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले वरिष्ठ अध्यापक कहते हैं कि मॉडरेशन से कहीं ज़्यादा फ़र्क मार्किंग और पेपर पैटर्न का पड़ता है. उनके अनुसार, आज की मार्किंग और पहले की मार्किंग में काफी अंतर आया है. अब मार्किंग प्वॉइंट के आधार पर होती है. “कॉपी चेक करने के लिए ऑब्जेक्टिव पैटर्न को फॉलो किया जाता है.”
“पहले किसी भी जवाब के पूरे नंबर नहीं दिए जाते थे लेकिन अब अगर बच्चे ने पांच नंबर के सवाल के लिए पांच प्वाइंट्स में जवाब लिखा है तो उसे पूरे नंबर दिए जाएंगे.”

“पहले ऐसा नहीं था. उन्होंने बताया कि पहले की तुलना में एक बड़ा अंतर ये आया है कि अब 100% मार्क्स देने की गाइड-लाइन है.” वो कहते हैं, “क्लासेज़ के दौरान ही बच्चों को ये बता दिया जाता है कि किस चैप्टर से कितने नंबर का सवाल आ सकता है.” “ऐसे में बच्चा उस चैप्टर को उतने ही नंबर के आधार पर तैयार करता है. पेपर पैटर्न में आया बदलाव भी एक बड़ी वजह है.”
“बीते कुछ सालों में वैकल्पिक सवालों पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाने लगा है. इसके अलावा एक वाक्यांश वाले सवालों की संख्या भी बढ़ा दी गई है. जिसमें पूरे नंबर मिलते हैं.”
हालांकि वो ये भी मानते हैं कि बीते कुछ सालों में पढ़ाई के तरीक़े में आए बदलाव से भी पर्सेंट बढ़ा है.

सीबीएसई के पूर्व चेयरमैन अशोक गांगुली कहते है कि पर्सेंट में इस तरह का उछाल साल 1990 से देखने को मिल रहा है. जब पेपर के पैटर्न में बदलाव किया गया.
उसके अलावा मार्किंग पैटर्न में भी बदलाव किया गया है.एक बड़ी वजह ये भी है कि ज़्यादातर प्राइवेट स्कूलों मे नेशनल बोर्ड लागू है और प्राइवेट स्कूल पूरी तरह से इस बात पर फ़ोकस होता है कि उनका रिज़ल्ट बेहतर से बेहतर रहेगा.
इन स्कूलों में बच्चों को कुछ इस तरह से तैयार किया जाता है कि वो बोर्ड एग्ज़ाम में बेहतरीन प्रदर्शन करें. हालांकि वो ये मानते हैं कि प्रीमियम परफॉर्मेंस पर जिस तरह से ज़ोर दिया जा रहा है उससे बच्चों की रचनात्मकता पर असर पड़ रहा है और उनमें आउट ऑफ़ बॉक्स जाकर सोचने की क्षमता घट रही है.
पूर्व चेयरमैन अशोक गांगुली बताते हैं कि पहले सब्जेक्टिव सवाल आया करते थे लेकिन 90 के दशक के बाद ऑब्जेक्टिव सवाल बढ़े हैं. ऐसी स्थिति में अगर बच्चा एक सही शब्द लिख देता है तो उसका जवाब सही हो जाता है. जबकि सब्जेक्टिव में बहुत अच्छा जवाब लिखने वाले को भी 6 या 7 नंबर ही मिल पाते थे.
यूपी बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में टॉप करने वाली अंजलि भी कुछ ऐसा ही मानती हैं. उनका कहना है कि मैंने खुद भी देखा है कि पहले यूपी बोर्ड वालों को इतने नंबर नहीं मिलते थे लेकिन अब पढ़ाई का तरीका बदल गया है.
साथ ही पेपर औऱ मार्किंग पैटर्न भी. यही वजह है कि अब यूपी जैसे बोर्ड में भी अच्छे नंबर आ रहे हैं. (इनपुट बीबीसी से साभार)

1 Comment

  1. आजकल तो सीबीएस ई की नंबर मार्किंग की प्रक्रिया कुछ भी समझ नहीं आती……अपने नंबर देख कर बच्चे भी हैरान होते देखे गये हैं क्योंकि उन्हें समझ नही आता कि दस नंबर का पेपर तो वे छोड़ आए थे फिर उनके 93या 94 मार्क्स कैसे आ गये ……?
    अब क्या नाम दें इस मार्क्स पॉलिसी को….?

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