भारत का संविधान बदला जाए, उसमें हैं विदेशी सोच, संघ प्रमुख भागवत का बयान

नई दिल्ली : राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप किया जाना चाहिए.
संघ प्रमुख भागवत ने हैदराबाद में एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि संविधान के बहुत सारे हिस्से विदेशी सोच पर आधारित हैं और ज़रूरत है कि आज़ादी के 70 साल के बाद इस पर ग़ौर किया जाए.

कुछ लोग आरएसएस प्रमुख के बयान को संविधान पर हिंदुत्व की सोच को थोपने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं.
सीपीआईएम महासचिव सीताराम येचुरी कहते हैं कि ”आरएसएस का ये एजेंडा उसके जन्म के समय से है.”
येचुरी के मुताबिक़ भागवत के भाषण का ‘हिडेन एजेंडा’ यही है, ”आरएसएस चाहता है कि हमारा भारत एक धर्म निरपेक्ष गणराज्य न रहकर उनके उद्देश्य के मुताबिक़ एक हिंदू राष्ट्र के रूप में बदल जाए.”

हालांकि हिंदुत्ववादी विचारधारा वाली पत्रिका ‘ऑर्गनाइज़र’ और पांचजन्य के समूह संपादक जगदीश उपासने कहते हैं, ”आरएसएस पूरी तरह से भारतीय संविधान में यक़ीन रखता है, सरसंघचालक के कथन का अर्थ यह है कि क़ानून और नैतिक मूल्यों में टकराव न हो और उसी अनुरूप संविधान में बदलाव किया जाना चाहिए.”
उपासने का कहना है कि चूंकि ये बात आरएसएस प्रमुख ने कही है तो इसे राजनीतिक दल अपने तौर पर देखेंगे, ”उन्होंने भारतीयता की बात कही है.”

सवाल उठ रहे हैं कि आरएसएस भारतीयता को सिर्फ़ हिंदुत्व के नज़रिए से देखता है. आलोचक कहते हैं कि आरएसएस के इस नज़रिए में भारत की विविधता और जीवन शैली के लिए कोई जगह नहीं है.
वामपंथी नेता येचुरी कहते हैं, ”भारत के सामने फ़िलहाल सवाल ये है कि वो उस भूतकाल में जिएगा जहां संघ उसे ले जाना चाहता है या फिर बेहतर और उज्जवल भविष्य की तरफ़ देखेगा. संघ भारत को पीछे धकेलने की कोशिश में है.”
कांग्रेस नेता शकील अहमद कहते हैं,”जब भागवत संविधान को भारतीय मूल्यों पर आधारित नहीं मानने की बात करते हैं, तब वो ख़ुद संविधान का अपमान करने लगते हैं.”
भागवत का यह कहना कि भारतीय संविधान का स्रोत विदेशी विचारधारा है, इस पर सीताराम येचुरी सवाल पूछते हैं, ”जम्महूरियत यानी लोकतंत्र भी एक विदेशी विचार है तो क्या भागवत उसे भी ख़त्म कर देंगे?”
आरएसएस प्रमुख ने ये भी कहा कि जो क़ानूनी तौर पर सही है, वह नैतिक रूप में सही हो ऐसा जरूरी भी नहीं, इस पर विचार होना चाहिए.
भागवत की इस बात पर संविधान के जानकार सूरत सिंह कहते हैं, ”ज़रूरत है कि कानून और नैतिकता के अंतर को साफ़ तरीक़े से समझा जाए.”
”नैतकिता है सबको प्यार करो, पड़ोसी को प्यार करो. लेकिन अपने पड़ोसी को न मारो ये क़ानून है. क्योंकि अगर ऐसा करोगे तो इसकी सज़ा मिलेगी. एक को क़ानून के ज़रिए लागू किया जा सकता है, दूसरे को नहीं.”

सूरत सिंह कहते हैं कि भारतीय संविधान का बड़ा हिस्सा ‘government of india act 1935’ से लिया गया है और उसमें बदलाव की ज़रूरत है, लेकिन संविधान के मूल ढांचे में बदलाव नहीं किया जा सकता है.
वो कहते हैं, ”सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की खंडपीठ ने 1973 के अपने एक फ़ैसले में साफ कर दिया था कि संविधान में संशोधन हो सकता है, लेकिन उसकी मूल भावना में बदलाव नहीं हो सकता.”(courtsey-BBC)