मां बाप ने मकान बेचा और बेटी को बनाया ओलंपिक मैडलिस्ट

नई दिल्ली: साक्षी मलिक को अगर लगातार सलाम ठोके जाएं तो भी सालों क म पड़ेंगे. साक्षी को पिता को जो डीटीसी के अफसर छोटी-छोटी बात पर डा़टते थे वही अब उसे सैल्यूट ठोक रहे हैं.  दिल्ली सरकार भी उन्हें सम्मानित कर रही है. कुश्ती में भारत को पहला कांस्य पदक दिलाने वाली साक्षी डीटीसी के कर्मचारी की बेटी है.

सात साल पहले साक्षी मलिक के माता-पिता को बेटी के प्रशिक्षण के लिए अपना मकान बेचना पड़ा था, लेकिन गुरुवार को रियो में कांस्य पदक जीतने के बाद धनवर्षा शुरू हो गई है. 2009 में साक्षी की ट्रेनिंग के लिए उनके माता-पिता ने रोहतक के शिवाजी कॉलोनी का 160 गज में बना मकान बेच दिया था. हालांकि इस दौरान उनके परिवार को किराये के मकान में रहना पड़ा. इससे साक्षी की ट्रेनिंग हुई और 58 किलोग्राम भार वर्ग की ये फ्रीस्टाइल पहलवान 2014 कॉमनवेल्थ गेम्स में रजत पदक जीतने में सफल हुई. साक्षी पर तब भी इनामों की बारिश हुई थी, लेकिन रियो ओलंपिक में उन्होंने भारत की तरफ से पहला पदक जीतकर धमाल मचा दिया. इसके बाद उनके लिए हरियाणा सरकार, केंद्र सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार, भारतीय ओलंपिक संघ और रेलवे सहित प्राइवेट संस्थाओं ने भी उस पर नकद ईनाम और सम्मान की वर्षा कर दी है. आने वाले समय में और भी घोषणाएं होंगी. ओलंपिक पदक जीतने के साथ ही वह खेल रत्न पाने की भी स्वभाविक दावेदार हो गईं हैं. खेल मंत्रलय के नियमों के अनुसार ओलंपिक वर्ष में पदक जीतने वाले एथलीट अपने आप राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड के हकदार हो जाते हैं. इससे पहले जिम्नास्ट दीपा कर्माकर और निशानेबाज जीतू राई के नाम की सिफारिश खेल रत्न के लिए की जा चुकी है. खेल मंत्रलय के एक अधिकारी ने कहा कि साक्षी देश के सर्वोच्च खेल सम्मान की स्वत: हकदार हो गईं हैं. हालांकि कुछ एथलीटों का कहना है कि हमारे यहां पदक जीतने के बाद इनामों की बौछार हो जाती है, लेकिन जब एथलीट पदक के लिए संघर्ष कर रहा होता है तब उसे व उसके परिवार वालों को प्रशिक्षण, यात्र टिकट, डाइट और अन्य चीजों के लिए मकान तक बेचना होता है. इस नीति को बदलने के बाद ही हम अमेरिका और चीन जैसे देशों की टक्कर ले पाएंगे. हमें पदक जीतने से पहले एथलीटों को पहचानना होगा और उन्हें उसके लायक बनाना होगा. यही कारण है कि सुशील कुमार के अलावा कोई दूसरा एथलीट दो ओलंपिक पदक नहीं जीत सका है.