एक आत्महत्या की दर्दनाक कहानी, मौत के बाद दूसरी, तीसरी और चौथी मौत

नई दिल्ली: घर में गमी हुई थी. उसका बाप सरकारी बेरुखी का शिकार होकर मारा गया था. ज़हर खाकर जान दी थी उसने. इसलिए ज़हर खाया क्योंकि उसके साथियों देश की सेवा करने वाले और अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले फौजियों को उनका हक मिले. मांग सिर्फ इतनी सी थी कि एक रैंक पर काम करने वाले लोगों को बराबर पेंशन मिले. मांग नाजायज भी नहीं थी लेकिन 1 लाख 10 हज़ार करोड़ के अमीरों के कर्ज माफ करने वाली सरकार के पास सैनिकों के लिए पैसे नहीं थे.

लेकिन जिन सैनिकों ने लड़ना सीखा हो वो हार कैसे मान सकते थे. लड़ते रहे. महीनों हो गए. दिल्ली के जंतर मंतर पर बैठे रहे एक दिन आया मोदी ने 2016 के जनरल डायर मुकेश कुमार मीना को भेजा. शांति पूर्वक धरने पर बैठे सैनिकों पर हमला कर दिया गया. बुजुर्ग सैनिकों  मैडल नोच लिए गए , कपड़े फाड़ दिए गए.

लेकिन सैनिकों ने हार नहीं मानी डटे रहे . इस उम्मीद में कि एक दिन न्याय मिलेगा. दो दिन पहले राहुल गांधी ने जब बयान दिया मांग की तो थोड़ी उम्मीद बंधी. सोचा कि आवाज दबेगी नहीं . फिर केजरीवाल ने भी साथ दिया राम किशन और उसके जैसे सैनिक उत्साह में थे. देशभक्त सरकार से काफी उम्मीदें थी. ये सरकार उन लोगों की थी जो सैनिकों के बलिदान की बात करते थे. जो एक दिया शहीदों के नाम जलाने की बात करते थे. जिसका प्रधानमंत्री दिवाली मनाने सीमा पर जाता था. राम किशन को इसी सरकार से काफी उम्मीदें थीं इसी उम्मीद के साथ वो रक्षा मंत्री से मिलने गया था. उस रक्षा मंत्री से जो सोशल मीडिया पर हीरो था सैनिकों और सेना के लिए मर मिटने की छवि थी जिसकी. जब राम किशन वहां मिलने गया तो उसने सोचा होगा कि आदर सत्कार होगा. देशभक्त सरकार मंत्री सीधे अंदर बुला लेंगे समझाएंगे मनाएंगे और वो मान मनव्वल से कुछ दिन और सरकार को देने को तैयार हो जाएंगे. राम किशन और उसके साथी इसी उम्मीद से रक्षा मंत्री से मिलने जंतर मंतर से गए थे. बड़ी मेहनत से एक ज्ञापन बनाया गया था. कई ड्राफ्ट बने किसी ने कुछ बदलवाया तो किसी ने कोई एतराज़ किया .

आखिर 2 नवंबर की सुबह इन सैनिकों ने रक्षा मंत्री से मिलने के लिए कूच किया. पहुंचे भी. लेकिन जिस शान बान के साथ आदर सत्कार की उम्मीद थी वो नहीं मिला . उल्टे मिला तिरस्कार. रक्षा मंत्री के दफ्तर ने सैनिकों से मिलने से इनकार कर दिया.

राम किशन लौट रहा था हारा हुआ. जवाहर भवन के पार उसने ज्ञापन का पन्ना लिया सोचा अब ये ज्ञापन किस काम का. उसपर एक सुसाइड नोट लिखा. लिखा कि वो कुर्बानी दे रहा है ताकि बाकी सैनिकों को हक मिल जाए. इसके बाद उसने वो गोली खा ली जो उसकी ज़िंदगी की आखिरी गोली थी.

राम किशन नाम के शहीद का शव मॉर्चरी मे था बेटे को इंतज़ार करना था कि वो शव ले जाए और आदर सत्कार के साथ अंतिम संस्कार करे. कलेजे में गुस्से का ज्वाला मुखी उबाल मार रहा था. विपक्षी पार्टियों के नेता आए तो उसने अपने मन  की बात कह दी . मीडिया आया तो उससे भी कह दिया कि दिल में क्या है. उसे क्या पता था कि ‘मन की बात’ कहने का हक अब सबका नहीं रहा.  उसे दमनकारी अफसर ने जेल में डालने का हुकुम सुना दिया.  शहीद पिता की अंत्येष्टि की तैयारियां करनी थी और बेटा मोदी सरकार की जेल में था. कुसूर क्या था? न तो उसने धरना दिया. न उसने जुलूस निकाला. न नारे लगाए. सिर्फ मन की बात ही तो कही थी. क्या अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता के साथ ही तो बयान किया था.  उसको तो क्या उसके पक्ष में आवाज़ उठाने वाले बड़ेबड़े नेताओं को हवालात में डाल दिया गया. देश की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी, सबसे जुझारू केजरीवाल और पता नहीं कितने नेता हवालात में डाल दिए गए थे.

सिर्फ इतना होता तो  भी बर्दाश्त हो जाता. राम किशन ग्रेवाल के बेटे जसवंत को पुलिस वालों ने थाने में पीटा भी वो भी तब जब उसके पिता की खुदकुशी उस दिन की राजनीति और मीडिया की चर्चा का मुख्यबिंदु थी.

ये कहानी सिर्फ एक बाप और बेटे की है. सरकारी दमन की कहानी. कहानी से ज्याद ये थप्पड़ है उन लोगों के चेहरों पर जो हर रोज़ भारत में मजबूत लोकतंत्र की दुहाई देते हैं कहते हैं कि यहां की सरकार तानाशाह नहीं हो सकती लेकिन इसी सरकार ने बिना कसूर लोगों को न सिर्फ जेल में डाला बल्कि उसने साथ हाथापाई भी की. राहुल गांधी , केजरीवाल, ज्योतिरादित्य सिंधिया और मनीष सिसोदिया अस्पताल में परिवार से मिलने गए थे. परिवार अस्पताल के वार्ड में नहीं था. ओपीडी भी नहीं थी वो. वो अस्पताल का ऐसा हिस्सा था जहां मरीज़ नहीं जाते. जहां सिर्फ शव रखे जाते हैं. अस्पताल की मुख्य बिल्डिंग से बहुत दूर होती है मॉर्चरी. लेकिन सरकार को गवारा नहीं था कि कोई सैनिक की मौत पर आवाज़ उठाए. उसने वो कर दिया जो इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में किया था. लेकिन ये तो आपातकाल भी नहीं था. लेकिन बड़े बड़े मंत्रियों के बयान थे, एक ने कहा कि पहले ये तो चैक कर लो कि करने वाले की दिमागी हालत ठीक भी थी या नहीं.

बहरहाल सैनिक के साथ साथ हो चुकी हैं पहले उसकी सरकार से उम्मीदों की मौत हुई, फिर न्याय के प्रति उसके विश्वास की मौत हुई उसके बाद इनसनियत की मौत हुई जब बेटा बाप के अंतिम संस्कार की तैयारियां करने के बजाय पुलिस की मारपीट झेल रहा था. लेकिन उम्मीद को अभी भी बचाया जा सकता है वो आईसीयू में है. ऑक्सीजन तो नेताओं की लोकतांत्रिक हरकतों से ही मिलेगी. सिर्फ एक दिया शहीदों के नाम जलान से नहीं .