इंदिरा गांधी के कारण ही कश्मीर भारत के साथ है. पढ़िए वो कड़ा फैसला

नई दिल्ली : अगर इंदिरा गांधी न होतीं और उन्होंने हौसला न दिखाया होता तो आज कश्मीर भारत का हिस्सा शायद ही होता. देश भर के बुद्धिजीवियों ने इंदिरा गांधी पर दबाव बनाया था लेकिन वे झुकी नहीं. सब चाहते थे कि इनसानियत के नाते इंदिरा गांधी युद्ध बंदियों को छोड़ दें. लेकिन इंदिरा गांधी ने शिमला समझौते पर दस्तखत हुए बगैर बंदियों को नहीं छोड़ा. जानकार लोग कहते हैं कि इस द्विपक्षीय समझौते से संयुक्त राष्ट्र संघ का वह प्रस्ताव निरस्त हो गया है जिसमें कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की बात कही गई थी. हालांकि 93 हजार युद्धबंदी शिमला समझौते के बाद ही रिहा किए जा सके थे.

लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह के नेतृत्व में बुद्धिजीवियों का एक प्रतिनिधिमंडल इंदिरा गांधी से इस उद्देश्य से मिला था. खुशवंत सिंह तब चर्चित इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया के संपादक थे.

खुशवंत ने अपने संपादकीय कौशल से वीकली का सर्कुलेशन 60 हजार से बढ़ा कर 4 लाख कर दिया था. इसको लेकर उनका बड़ा दबदबा था. पर इंदिरा ने उस दबदबे की परवाह नहीं की. इंदिरा गांधी से उस मुलाकात का विवरण खुद खुशवंत सिंह ने ईमानदारी से लिखा है. इस विवरण में पता चलता है कि देश के बुद्धिजीवी उस दौर में कितने निर्भीक थे. उन पत्रकारों की हिम्मत और ताकत देखिए.

उनके अनुसार ‘एक मुलाकात के दौरान मैंने इंदिरा गांधी का गरम मिजाज देखा. मैं पाकिस्तानी युद्धबंदियों की रिहाई की मांग करने एक प्रतिनिधिमंडल लेकर उनके पास गया था. प्रतिनिधिमंडल में अमेरिका में हमारे भूतपूर्व राजदूत गगन बिहारी मेहता, प्रसिद्ध उर्दू लेखक कृश्नचंदर और ख्वाजा अहमद अब्बास थे.’

खुशवंत सिंह ने लिखा कि मैं उनसे कुछ कहूं, उसके पहले ही इंदिरा जी ने तपाक से मुझे कहा ‘मिस्टर सिंह, आपने पाकिस्तान के युद्धबंदियों के बारे में जो लिखा है, वह सरकार के लिए अत्यधिक परेशानी का सबब बना है.’

मैंने भी तपाक से जवाब दिया, ‘यही तो मेरा उद्देश्य था. मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने आपकी सरकार को परेशानी में डाला.’

इस पर इंदिरा गांधी ने बड़ी तिक्तता से खुशवंत से कहा कि ‘आप अपने को शायद महान संपादक मानते हैं, पर आपको राजनीति का क ख ग भी नहीं मालूम’. इस पर खुशवंत का जवाब था, ‘मैं मानता हूं कि मैं राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानता. लेकिन नैतिकता के बारे में जरूर जानता हूं. जो नैतिक दृष्टि से गलत है, वह राजनीतिक दृष्टि से सही कैसे हो सकता है?’ इस पर इंदिरा जी ने कहा कि ‘उपदेश के लिए धन्यवाद!’ यह कहते हुए प्रधानमंत्री ने खुशवंत की ओर से मुंह फेर लिया.

 

अब गगन बिहारी की बारी थी. वयोवृद्ध मेहता बोलना शुरू ही कर रहे थे कि श्रीमती गांधी ने बड़ी रुखाई से उन्हें टोकते हुए कहा कि ‘मैं आपसे कुछ भी सुनना नहीं चाहती. मुझे आप के अमेरिका समर्थक दृष्टिकोण के बारे में पता है.’

इस पर बुजुर्ग गगन बिहारी ने अपने को अत्यधिक अपमानित महसूस किया. कृश्नचंदर और अब्बास की बातों पर तो उन्होंने कोई ध्यान ही नहीं दिया. मशहूर कॉलम लेखक और फिल्म निर्माता अब्बास ने भी मेहता की तरह ही महसूस किया.

जब अमेरिका के दबाव में नहीं आईं इंदिरा

पर वह इंदिरा गांधी ही थीं जो किसी तरह के दबाव में नहीं आने वाली थीं. बांग्लादेश युद्ध को लेकर जब वह अमेरिका के दबाव में नहीं आईं तो किसी और का कितना महत्व था?

याद रहे कि 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय अमेरिका ने अपनी नेवी का सातवां बेड़ा बंगाल की खाड़ी में उतार दिया था. तब यह कहा गया था कि उसका उद्देश्य पूर्वी पाकिस्तान से अमेरिकी नागरिकों को निकालना था. पर, 2011 में मिले गुप्त अमेरिकी दस्तावेज से यह पता चला कि निक्सन सरकार का मकसद भारतीय सेना को निशाना बनाना था.

 

इसके बावजूद इंदिरा सरकार ने बांग्लादेश को आजाद करा ही दिया. जुलाई, 1972 में भारत-पाक के बीच शिमला समझौता हुआ. उस समझौते के जरिए पाकिस्तानी राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत सरकार के साथ शांति कायम रखने का आश्वासन दिया था.

इस द्विपक्षीय समझौते से भारत सरकार ने यह धारणा बनाई थी कि इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ का वह प्रस्ताव निरस्त हो गया है जिसमें कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की बात कही गई थी. यह और बात है कि भुट्टो ने बाद में समझौते की धज्जियां उड़ा दी और अपना वादा नहीं निभाया. हालांकि 93 हजार युद्धबंदी शिमला समझौते के बाद ही रिहा किए जा सके थे.

यदि इस देश के कुछ बुद्धिजीवियों के कहने पर इंदिरा ने पहले ही युद्धबंदियों को छोड़ दिया होता तो भुट्टो जैसा जिद्दी नेता शिमला समझौता क्यों करता? जब शिमला समझौता हुआ तो यह भी माना गया कि पाकिस्तान ने बांग्लादेश के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया.