TRP की पत्रकारिता न करने वाले भूखे मर रहे हैं, कोई है जो सुनेगा


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लेखक गिरजेश वशिष्ठ वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्हें मूल्य परक पत्रकारिता के लिए पहचाना जाता है. आजतक समेत देश के कई नामी मीडिया संस्थानों में वरिष्ठ पदों पर रहे हैं और नॉकिंग न्यूज़ डॉट कॉ़म के सलाहकार हैं.

रिपब्लिक की चोरी पकड़ी गई तो ज्ञान की गंगा बहने लगी है. इंडिया टुडे वाले रिपब्लिक को धुन रहे हैं. रिपब्लिक वाले कपड़े फाड़ फाड़कर दूसरों को गाली दे रहे हैं बीच में कोई विनोद कापड़ी जैसा कूद जाता है तो बेचारा वो अलग से दस बीस खाता है. कई बोल रहे हैं कई दुबके बैठे हैं. सबका ज्ञान एक ही है. कंटेंट का कबाड़ा हो रहा है. खबरों का धर्म टीआरपी हो गया है. सब टीआरपी के पीछे भाग रहे हैं. टीआरपी के लिए तमाशे बाजी हो रही है. निचोड़ में इस टीआरपी ने चैनलों की सामग्री का स्तर खराब कर दिया है.

टीआरपी से भी ज्यादा वो पत्रकार निशाने पर हैं जो टीआरपी देवी को खुश करने के लिए नारियल, अगरबत्ती, धूपबत्ती बगैरह लेकर नये नये पतित आइडिया लाते हैं.
लेकिन कभी आपने सोचा कि दुनिया में या धरती पर कुछ ऐसे लोग भी होंगे जिन्होंने सामाजिक जिम्मेदारियों से कभी समझौता नहीं किया. जिन्होंने कंटेंट को बिकाऊ नहीं बनाया. जिन्होंने सिर्फ खबरों के जरिए टीआरपी की देवी को भी मना लिया. वो लोग कहां है. ये सवाल तो मन में आना ही चाहिए. माना मीडिया का स्तर गिरा है. लेकिन इस कॉर्पोरेट पत्रकारिता के दौर में जब खबरें सामान बन रही थीं तो क्या हो रहा था. कौन लोग इसका विरोध कर रहे थे.
उन लोगों में से कितने बेरोज़गार हैं और रोज़ मर्रा का खर्चा चलाने में भी सक्षम नहीं हैं. उन लोगों में से कितने हैं जो इन टीआरपी वीरों की गालियां सुनते हुए किसी न्यूज रूम के किसी अधेरे कोने में अच्छे दिनों के इंतजार में सड़ रहे हैं. कितने लोग ऐसे हैं जो इस डर से कुछ नहीं कहते कि इन धंधेबाज़ पत्रकारों की पालतू गुंडा ब्रिगेड से उलझना पड़ेगा. जो किसी भी स्तर पर जा सकती है.
कभी पत्रकारिता के उस मॉडल पर भी बात कीजिए जो इस कॉर्पोरेट मॉडल के बाहर की पत्रकारिता हो. जिसका मकसद मोटा पैसा सूतना न हो. जिसके पास संसाधन न हो लेकिन सूचना हो. मुझे मोटे मोटे दो मॉडल याद आते हैं. चंडीगढ़ से ट्रिब्यून निकलता है. और ग्वालियर से स्वदेश. स्वदेश संघ का अखबार है और उसी की विचारधारा को आगे बढ़ाता है लेकिन इससे इतर जब विचारधारा की बात नहीं होती तो वो जनसरोकार भी उठाता है.
करप्शन पर खबरें छापता है. अपनी ही सरकार की खबर लेता रहता है. सौ मैं से 100 न सही लेकिन पचास साठ नंबर तो ला ही रहा है. बिजली पानी ट्रेफिक उसके सरोकार होते हैं लेकिन उसी शहर से निकलने वाले कॉर्पोरेट अखबार एलानिया पेड न्यूज छापते हैं. ट्रिब्यून में भी तरह तरह की घुसपैठ और चीजों के बावजूद कंटेंट तो ठीक ही है. वहां धंधेबाज़ी तो नहीं घुसी है. ऐसे बहुत से अखबार हैं जो ट्रस्ट चलाते हैं और उनका मकसद इस तरह की धंधेबाज़ी नहीं है.
मेरा मकसद यहां किसी अखबार की तारीफ या बुराई में फंसना नहीं है लेकिन ट्रस्ट जैसे म़ॉडल इस मुनाफाखोर कॉर्पोरेट मॉडल से बेहतर विकल्प हो सकते हैं. ये समाधान की बात है. मैं समाधान की बात कर रहा हूं. कुछ लोग वैचारिक रूप से सहमत न हों लेकिन द वायर और सत्य हिंदी भी उसी दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं.
वापस अच्छी पत्रकारिता पर आते हैं. कुछ ध्यान हमें अच्छी पत्रकारिता पर कुर्बानी देने और कंटेंट से समझौता न करने वाले पत्रकारों पर भी देना चाहिए. उनके पास काम नहीं है. संपादकों की एक पूरी लंबी लिस्ट है जो घर बैठे बैठे अब खुद को रिटायर ही मान चुके हैं. इसलिए कि वो गिर नहीं सकते और कोर्पोरेट को एक स्तर से नीचे गिरकर ही काम करना मंजूर है. बेहतर हो कि पत्रकारिता के लिए जीवन और अपनी खुशियां न्यौछावर करने वालों पर कुछ लिखें. उनके बारे में बात करें. उन पूर्व संपादकों को याद करें जिन्होंने पत्रकारिता को वो इज्जत दिलाई जिसे बेचकर लोग आज पैसे कमाने में लगे हैं. उन्हें याद करें जिन्होंने चैनल निकाले और सिर्फ खबरें दिखाईं.
उन्हें याद करें जिनके लिए जनता के दुखदर्द और सामाजिक सदभाव ही खबर का एजेंडा था. जो पत्रकारों के वसूली , उगाही और विज्ञापन वसूली के लिए इस्तेमाल करने के खिलाफ थे. उनके बारे में सोचें जिन्होंने जनता पत्रकारिता का धर्म निभाकर लोगों को और शिक्षित और जागरूक करने के लिए काम किया न कि उनकी अज्ञानता का फायद उठाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मतलब को ही बदल दिया. उनके बारे में सोचें जो मीडिया के कर्तव्य को ध्यान में लेकर चलते रहे जिन्होंने दंगों की खबरों को जिम्मेदारी से दिखाया और छापा. जिन्होंने आग भड़काई नहीं उसे शांत किया. उस देश की एकता को बढ़ाया जिसे भारत की विशेषता बताने वाले नारे नेता लगवाते हैं और फिर दंगों में जुट जाते हैं. जिसने सत्ता के विज्ञापन से ज्यादा जरूरी ये समझा कि सत्ता को लगाम लगाकर रखा जा सके. सरकार के दबाव में वो सब घर बिठा दिए गए हैं. आप जब ढाबे वाले का मटर पनीर नहीं बिकता तो आवाज़ उठाते हैं. कभी इन स्वास्थ्य के लिए घाटक व्यंजन बेचने वालों की निंदा करने के साथ साथ पौष्टिक आहार देने वालों को भी याद करें. जब मर जाएंगे तब ऑक्सीजन देने से कुछ नहीं होगा. अभी जान बाकी है. थोड़ा सीपीआर देना बनता है.

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