हिंदू राष्ट्र नेपाल में वामपंथियो को जबरदस्त जीत, नेपाली कांग्रेस का सूपड़ा साफ


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नई दिल्ली :  नेपाल में हो रहे ऐतिहासिक प्रांतीय और संसदीय चुनाव में वामपंथी गठबंधन को अब तक घोषित 30 सीटों में से  26 सीटों पर जीत मिली है. इसके बावजूद वो नेपाली कांग्रेस पार्टी पर लगाता  बढ़त बनाए हुए हैं. नेपाली कांग्रेस को सिर्फ तीन सीटों पर ही जीत हासिल हुई है. अधिकारियों ने आज यह जानकारी दी. इसे हिंदू राष्ट्र नेपाल में वामपंथ की बुलंदी के तौर पर देखा जा रहा है.

अक्सर दुनिया में वामपंथ को खात्मे की ओर बढ़ने की बातें की जाती हैं. आलोचक कहते हैं कि वामपंथी विचारधारा बीते जमाने की चीज़ हो गई है. ये अलग बात है कि बड़ी संख्या में देश वामपंथी रास्ते पर आज भी चल रहे हैं. चीन और उत्तर कोरिया जैसे देश भी उसमें शामिल हैं और क्यूबा जैसे अनगिनत छोड़े देश भी. लेकिन भारत में के नज़दीक वामपंथ के मजबूत होते जाने की खबर लाल झंडे वालों को राहत देने वाली है.

कम्युनिस्ट गठबंधन में नेकपा एमाले (सीपीएन-यूएमएल) ने 18 सीटें जीती जबकि उसके सहयोगी दल सीपीएन माओइस्ट सेंटर ने आठ सीटों पर जीत हासिल की. विपक्षी पार्टी नेपाली कांग्रेस ने तीन सीट पर जीत दर्ज की. वहीं एक स्वतंत्र उम्मीदवार को भी जीत हासिल हुई है.

मतों की गणना में सीपीएन-यूएमएल 44 सीटों पर आगे चल रही है, जबकि सीपीएन माओइस्ट सेंटर 18 सीटों पर आगे है. नेपाली कांग्रेस 12 सीटों पर आगे है.

संसदीय चुनाव के लिए कुल 1,663 उम्मीदवार जबकि राज्य विधानसभा चुनाव के लिए 2,819 उम्मीदवार मैदान में थे. कई लोगों को यह उम्मीद है कि इस ऐतिहासिक चुनाव से इस हिमालयी देश में राजनीतिक स्थिरता आएगी.

इस चुनाव से संसद के लिए 128 सदस्यों और विधानसभा के लिए 256 सदस्यों का चुनाव होगा.

राज्य और संघीय चुनाव के लिए दो चरणों में 26 नवंबर और 27 दिसंबर को मतदान आयोजित किया गया था.

नेपाल में आयोजित हुए इस चुनाव को संघीय लोकतंत्र अपनाने की दिशा में अंतिम कदम माना जा रहा है. यह देश साल 2006 तक एक दशक तक चले गृहयुद्ध से गुजर चुका है. इस युद्ध ने 16,000 लोगों की जानें गईं.

साल 2015 में नेपाल द्वारा संविधान स्वीकार किए जाने के बाद देश को सात राज्यों में बांटा गया था. इसके बाद क्षेत्र और अधिकार को लेकर हुई जातीय लड़ाई में दर्जनों लोगों की मौत हुई थी.

नेपाल में नए संविधान स्वीकार किए जाने के बाद जातीय मधेसी समूह (ज्यादातर भारतीय मूल के हैं) ने कई महीनों तक विरोध प्रदर्शन किया था. समूह का कहना था कि उन्हें एक प्रांत में ज्यादा क्षेत्र नहीं दिया जा रहा है और वह भेदभाव का भी सामना कर रहे हैं.