सिंधुजल समझौता तोड़ना आसान नहीं, जानिए क्या है खास इस समझौते में

सिंधु जल संधि को दो देशों के बीच जल विवाद पर एक सफल अंतरराष्ट्रीय उदाहरण बताया जाता है.56 साल पहले भारत और पाकिस्तान ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. दोनो देशों के बीच दो युद्धों और एक सीमित युद्ध कारगिल और हज़ारों दिक्क़तों के बावजूद ये संधि कायम है. विरोध के स्वर उठते रहे लेकिन संधि पर असर नहीं पड़ा. उड़ी चरमपंथी हमले में 18 भारतीय सैनिकों के मारे जाने के बाद एक बार फिर कयास लग रहे हैं कि क्या भारत, सिंधु जल समझौता रद्द कर सकता है?

गुरुवार को जब विदेश मंत्रालय प्रवक्ता विकास स्वरूप से इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कोई सीधा जवाब नहीं देते हुए कहा, “आखिरकार किसी भी समझौते के लिए दोनो पक्षों में सद्भाव और सहयोग की ज़रूरत होती है.”

सिंधु बेसिन ट्रीटी पर 1993 से 2011 तक पाकिस्तान के कमिश्नर रहे जमात अली शाह कहते हैं, “इस समझौते के नियमों के मुताबिक कोई भी एकतरफ़ा तौर पर इस संधि को रद्द नहीं कर सकता है या बदल सकता है. दोनो देश मिलकर इस संधि में बदलाव कर सकते हैं या एक नया समझौता बना सकते हैं.”

उधर पानी पर वैश्विक झगड़ों पर किताब लिख चुके ब्रह्म चेल्लानी समाचार पत्र ‘हिंदू’ में लिखते हैं, “भारत वियना समझौते के लॉ ऑफ़ ट्रीटीज़ की धारा 62 के अंतर्गत इस आधार पर संधि से पीछे हट सकता है कि पाकिस्तान आतंकी गुटों का इस्तेमाल उसके खिलाफ़ कर रहा है. अंततराष्ट्रीय न्यायालय ने कहा है कि अगर मूलभूत स्थितियों में परिवर्तन हो तो किसी संधि को रद्द किया जा सकता है.”

क्या है सिंधु जल समझौता?

सिंधु नदी का इलाका करीब 11.2 लाख किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. ये इलाका पाकिस्तान (47 प्रतिशत), भारत (39 प्रतिशत), चीन (8 प्रतिशत) और अफ़गानिस्तान (6 प्रतिशत) में है.

एक आंकड़े के मुताबिक करीब 30 करोड़ लोग सिंधु नदी के आसपास के इलाकों में रहते हैं.

सिंधु जल संधि के पीछे की कहानी.

अमरीका की ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर इस समझौते की पीछे की कहानी है. ऐरॉन वोल्फ़ औऱ जोशुआ न्यूटन अपनी केस स्टडी में बताते हैं कि ये झगड़ा 1947 भारत के बंटवारे के पहले से ही शुरू हो गया था, खासकर पंजाब और सिंध प्रांतों के बीच.

1947 में भारत और पाकिस्तान के इंजीनियर मिले और उन्होंने पाकिस्तान की तरफ़ आने वाली दो प्रमुख नहरों पर एक ‘स्टैंडस्टिल समझौते’ पर हस्ताक्षर किए जिसके अनुसार पाकिस्तान को लगातार पानी मिलता रहा. ये समझौता 31 मार्च 1948 तक लागू था.

जमात अली शाह के अनुसार 1 अप्रैल 1948 को जब समझौता लागू नहीं रहा तो भारत ने दो प्रमुख नहरों का पानी रोक दिया जिससे पाकिस्तानी पंजाब की 17 लाख एकड़ ज़मीन पर हालात खराब हो गए.

भारत के इस कदम के कई कारण बताए गए जिसमें एक था कि भारत कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान पर दबाव बनाना चाहता था. बाद में हुए समझौते के बाद भारत पानी की आपूर्ति जारी रखने पर राज़ी हो गया.

स्टडी के मुताबिक 1951 में प्रधानमंत्री नेहरू ने टेनसी वैली अथॉरिटी के पूर्व प्रमुख डेविड लिलियंथल को भारत बुलाया. लिलियंथल पाकिस्तान भी गए और वापस अमरीका लौटकर उन्होंने सिंधु नदी के बंटवारे पर एक लेख लिखा. ये लेख विश्व बैंक प्रमुख और लिलियंथल के दोस्त डेविड ब्लैक ने भी पढ़ा और ब्लैक ने भारत और पाकिस्तान के प्रमुखों से इस बारे में संपर्क किया. और फिर शुरू हुआ दोनो पक्षों के बीच बैठकों का सिलसिला.

ये बैठकें करीब एक दशक तक चलीं और आखिरकार 19 सितंबर 1960 को कराची में सिंधु नदी समझौते पर हस्ताक्षर हुए. दोनों देशों के बीच हुए समझौते के मुताबिक सिंधु, ब्यास, रावी, सतलज, चेनाब और झेलम नदियों के पानी का भारत और पाकिस्तान के बीच बंटवारा होता है.

भारत और पाकिस्तान के बीच साल 1960 में सिंधु जल संधि हई

समझौते की 5 प्रमुख बातें.

  1. समझौते के अंतर्गत सिंधु नदी की सहायक नदियों को पूर्वी और पश्चिमी नदियों में विभाजित किया गया. सतलज, ब्यास और रावी नदियों को पूर्वी नदी बताया गया जबकि झेलम, चेनाब और सिंधु को पश्चिमी नदी बताया गया.
  2. समझौते के मुताबिक पूर्वी नदियों का पानी, कुछ अपवादों को छोड़े दें, तो भारत बिना रोकटोक के इस्तेमाल कर सकता है. पश्चिमी नदियों का पानी पाकिस्तान के लिए होगा लेकिन समझौते के भीतर इन नदियों के पानी के सीमित इस्तेमाल का अधिकार भारत को दिया गया, जैसे बिजली बनाना, कृषि के लिए सीमित पानी. अनुबंध में बैठक करने और साइट इंस्पेक्शन का प्रावधान है.
  3. समझौते के अंतर्गत एक स्थायी सिंधु आयोग की स्थापना की गई. इसमें दोनो देशों के कमिश्नरों के मिलने का प्रस्ताव था. ये कमिश्नर हर कुछ वक्त में एक दूसरे से मिलेंगे और किसी भी परेशानी पर बात करेंगे.
  4. अगर कोई देश किसी प्रोजेक्ट पर काम करता है और दूसरे देश को उसकी डिज़ाइन पर आपत्ति है तो दूसरा देश उसका जवाब देगा, दोनो पक्षों की बैठकें होंगी. अगर आयोग समस्या का हल नहीं ढूंढ़ पाती हैं तो सरकारें उसे सुलझाने की कोशिश करेंगी.
  5. इसके अलावा समझौते में विवादों का हल ढूंढने के लिए तटस्थ विशेषज्ञ की मदद लेने या कोर्ट ऑफ़ आर्ब्रिट्रेशन में जाने का भी रास्ता सुझाया गया है.

सामग्री सौजन्य- बीबीसी