हिंदुवादियों के देश के साथ 7 गद्दारी भरे पाप, इतिहास कहता है जिन्ना इससे तो अच्छे ही थे ?

1. भारत के विभाजन के विचार की नींव रखना

भारत विभाजन का समर्थन किया. विनायक दामोदर सावरकर . द्विराष्ट्र सिद्धांत के समर्थक थे जिन्ना और सावरकर दोनों चाहते थे कि एक हिंदू राष्ट्र बने और एक इस्लामिक राष्ट्र, कहा कि हिंदू और मुसलमान अलग देश हैं कभी साथ नहीं रह सकते. पहले सावरकर ये प्रस्ताव लेकर आए और इसके तीन साल बाद ही जिन्ना ने भी द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया. (हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में सावरकर का भाषण, 1937) बाद में संघ ने भारत विभाजन का विरोध करने वाले गांधी की हत्या करके उन्हें ही विभाजन का दोषी ठहराने के लिए दुष्प्रचार किया गया. इतिहासकार कहते हैं कि संघ ने उग्र हिंदूवातावरण न बनाया होता तो शायद जिन्ना अलग राष्ट्र नहीं मांगते.

2. आर्मी को तोड़ने की साजिश

भारत के खिलाफ साजिश. देश के आज़ाद होने के तीसरे साल ही संघ ने एक साजिश रची. आर्मी चीफ जनरल करिअप्पा को कत्ल करने की साजिश. संघ ने पहले उत्तर भारत और दक्षिण भारत का ध्रुवीकरण किया फिर कुछ सिख युवकों को भड़काकर करिअप्पा की हत्या की कोशिश की . मामले में 6 लोगों को सजा हुई थी (स्रोत – 2017 में रिलीज हुए सीआईए के डिक्लासिफाइड किए गए दस्तावेज़)
3. नेताजी सुभाष चंद्र बोस से गद्दारी
जब भारत की आज़ादी के लिए नेता जी सुभाषचंद्र बोस जापान की मदद लेने गए थे तो संघ ने अंग्रेज़ों का साथ दिया. हिंदू महासभा ने ‘वीर’ सावरकर के नेतृत्व में ब्रिटिश फ़ौजों में भर्ती के लिए शिविर लगाए। हिंदुत्ववादियों ने अंग्रेज़ शासकों के समक्ष मुकम्मल समर्पण कर दिया था जो ‘वीर’ सावरकर के निम्न वक्तव्य से और भी साफ हो जाता है-

‘जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फ़ायदे में हो। हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारख़ानों वगैरह में प्रवेश करना चाहिए…

ग़ौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं। इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के क़हर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताक़त पहुंचा कर ही किया जा सकता है। इसलिए हिंदू महासभाइयों को ख़ासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीक़े से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।’ (स्रोत- वीर सावरकर समग्र वांड्मय )

4. महात्मा गांधी की हत्या
आरएसएस ने की या नहीं इसको लेकर विवाद है. गांधी के मारे जाने को वो सही तो मानते रहे हैं लेकिन हत्या की साजिश से इनकार करते हैं. लेकिन यहां कुछ जानकारियां हैं जो कहती हैं कि गांधी को मारने के पीछे संघ था. गांधी जी की हत्या के मामले में आठ आरोपी थे – नाथूराम गोडसे और उनके भाई गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किष्टैया, विनायक दामोदर सावरकर और दत्तात्रेय परचुरे. इस गुट का नौवां सदस्य दिगंबर रामचंद्र बडगे था जो सरकारी गवाह बन गया था. ये सब आरएसएस या हिंदू महासभा या हिंदू राष्ट्र दल से जुडे हुए थे. अदालत में दी गई बडगे की गवाही के आधार पर ही सावरकर का नाम इस मामले से जुड़ा था और गांधी की हत्या के बाद हिंदू महासभा और आरएसएस पर प्रतिबंध लग गया था. यानी गांधी की हत्या में संघ को क्लीन चिट नहीं दी जा सकती.

अगर गांधी दस साल और रहते तो देश में सिद्दांत की राजनीति मजबूत होती. सालों तक स्वतंत्रता सेनानियों पर जुल्म ढाने वाली अफसरशाही ने आज़ाद होते ही राजनीति को प्रलोभन देने शुरू कर दिए कि कहीं नेता उनसे बदला न लें. ये प्रलोभन बाद में करप्शन में बदल गए. गांधी होते तो देश करप्ट नहीं होता. वो देश को सैद्धांतिक राजनीति में पाग कर जाते. कपूर कमीशन की रिपोर्ट ने भी गांधी की हत्या में हिंदूवादियों का ही हाथ बताया था.

5. नमक सत्याग्रह का विरोध
आरएसएस द्वारा प्रकाशित की गई हेडगेवार की जीवनी के मुताबिक …

जब गांधी ने 1930 में अपना नमक सत्याग्रह शुरू किया, तब उन्होंने (हेडगेवार ने) ‘हर जगह यह सूचना भेजी कि संघ इस सत्याग्रह में शामिल नहीं होगा. हालांकि, जो लोग व्यक्तिगत तौर पर इसमें शामिल होना चाहते हैं, उनके लिए ऐसा करने से कोई रोक नहीं है. इसका मतलब यह था कि संघ का कोई भी जिम्मेदार कार्यकर्ता इस सत्याग्रह में शामिल नहीं हो सकता था’.

वैसे तो, संघ के कार्यकर्ताओं में इस ऐतिहासिक घटना में शामिल होने के लिए उत्साह की कमी नहीं थी, लेकिन हेडगेवार ने सक्रिय रूप से इस उत्साह पर पानी डालने का काम किया.

6. भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध

भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने के डेढ़ साल बाद, ब्रिटिश राज की बॉम्बे सरकार ने एक मेमो में बेहद संतुष्टि के साथ नोट किया कि ‘संघ ने पूरी ईमानदारी के साथ ख़ुद को क़ानून के दायरे में रखा है. ख़ासतौर पर अगस्त, 1942 में भड़की अशांति में यह शामिल नहीं हुआ है.’

आरएसएस नेतृत्व के पास आज़ादी की लड़ाई में शामिल न होने की एक विचित्र वजह थी. जून, 1942 में- बंगाल में अंग्रेज़ों द्वारा निर्मित अकाल, जिसमें कम से कम 30 लाख लोग मारे गए, इस घटने से कुछ महीने पहले- दिए गए एक अपने एक भाषण में गोलवलकर ने कहा था:

”संघ समाज की वर्तमान बदहाली के लिए किसी को भी दोष नहीं देना चाहता. जब लोग दूसरों पर आरोप लगाना शुरू करते हैं तो इसका मतलब होता है कि कमज़ोरी मूल रूप से उनमें ही है. कमज़ोरों के साथ किए गए अन्याय के लिए ताक़तवर पर दोष मढ़ना बेकार है…संघ अपना क़ीमती वक्त दूसरों की आलोचना करने या उनकी बुराई करने में नष्ट नहीं करना चाहता. अगर हमें पता है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, तो इसके लिए बड़ी मछली को दोष देना पूरी तरह पागलपन है. प्रकृति का नियम, भले ही वह अच्छा हो या ख़राब, हमेशा सच होता है. इस नियम को अन्यायपूर्ण क़रार देने से नियम नहीं बदल जाता.”
यहां तक कि मार्च, 1947 में जब अंग्रेज़ों ने आख़िरकार एक साल पहले हुए नौसेनिक विद्रोह के बाद भारत छोड़कर जाने का फैसला कर लिया था, गोलवलकर ने आरएसएस के उन कार्यकर्ताओं की आलोचना जारी रखी, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में हिस्सा लिया था.

7. आज़ादी के बाद का ‘देशद्रोह’
भारत की आज़ादी के उपलक्ष्य में आरएसएस के मुखपत्र ‘द ऑर्गेनाइजर’ में प्रकाशित संपादकीय में संघ ने भारत के तिरंगे झंडे का विरोध किया था, और यह घोषणा की थी कि ‘‘हिंदू इस झंडे को न कभी अपनाएंगे, न कभी इसका सम्मान करेंगे.’’ बात को स्पष्ट करते हुए संपादकीय में कहा गया कि ‘‘ ये ‘तीन’ शब्द ही अपने आप में अनिष्टकारी है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित तौर पर ख़राब मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा और यह देश के लिए हानिकारक साबित होगा.’’

 

(आजतक के वरिष्ठ पत्रकार गिरिजेश वशिष्ठ का आईचौक पर लेख )

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