बीबीसी ने बेघर औरतों से पूछा- पीरियड्स में क्या करती हो. जवाब हिला देने वाला था

नई दिल्ली: “दीदी, हमें तो ओढ़ने-बिछाने को कपड़े मिल जाएं वही बहुत है, ‘उन दिनों’ के लिए कपड़ा कहां से जुटाएं…” दिल्ली के बंगला साहिब गुरुद्वारे के पास सड़क पर बैठी रेखा की आंखों में लाचारी साफ़ देखी जा सकती है. ज़ाहिर है ‘उन दिनों’ से रेखा का मतलब मासिक धर्म से है.

वो कहती हैं, “हम माहवारी को बंद नहीं करा सकते, कुदरत पर हमारा कोई बस नहीं है. जैसे-तैसे करके इसे संभालना ही होता है. इस वक़्त हम फटे-पुराने कपड़ों, अख़बार या कागज से काम चलाते हैं.”

रेखा के साथ तीन और औरतें हैं जो मिट्टी के छोटे से चूल्हे पर आग जलाकर चाय बनाने की कोशिश कर रही हैं. उनके बच्चे आस-पास से सूखी टहनियां और पॉलीथीन लाकर चूल्हे में डालते हैं तो आग की लौ थोड़ी तेज़ होती है.

थोड़ी-बातचीत के बाद ये महिलाएं सहज होकर बात करने लगती हैं. वहीं बैठी रेनू मुड़कर अगल-बगल देखती हैं कि कहीं कोई हमारी बात सुन तो नहीं रहा. फिर धीमी आवाज़ में बताती हैं, “मेरी बेटी तो जिद करती है कि वो पैड ही इस्तेमाल करेगी, कपड़ा नहीं.”

वो कहती हैं कि जहां दो टाइम का खाना मुश्किल से मिलता है और सड़क किनारे रात बितानी हो वहां हर महीने सैनिटरी नैपकिन खरीदना उनके बस का नहीं.

थोड़ी दूर दरी बिछाकर लेटी पिंकी से बात करने पर उन्होंने कहा,”मैं तो हमेशा कपड़ा ही यूज़ करती हूं. दिक्कत तो बहुत होती है लेकिन क्या करें…ऐसे ही चल रहा है. हमारा चमड़ा छिल जाता है और दाने हो जाते हैं, तकलीफ़ें बहुत हैं और पैसों का अता-पता नहीं.”

ऐसी बेघर, गरीब और दिहाड़ी करने वाली औरतों के लिए मासिक धर्म का वक़्त कितना मुश्किल होता होगा. जेएनयू की ज़रमीना इसरार ख़ान से सैनिटरी नैपकिन पर 12 फ़ीसदी जीएसटी के बारे में बात करते हुए मेरी आंखों के सामने रेखा, रेनू और पिंकी का चेहरा घूमता है.

ज़रमीना ने सैनिटरी नैपकिन पर 12 फ़ीसदी जीएसटी के फ़ैसले को चुनौती देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की है.

अब अदालत ने उनकी याचिका को संज्ञान में लेते हुए केंद्र सरकार से पूछा है कि अगर बिंदी, सिंदूर और काजल जैसी सौंदर्य प्रसाधन की चीजों को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा जा सकता है तो सैनिटरी पैड जैसी अहम चीज को क्यों नहीं?

राख, रेत और कागज का इस्तेमाल

ज़रमीना ने बीबीसी से बातचीत में कहा,”मैं जानती हूं कि गरीब औरतें पीरियड्स के दौरान राख, अख़बार की कतरनें और रेत का इस्तेमाल करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है. ये सेहत के लिए कितना ख़तरनाक है, बताने की ज़रूरत नहीं है.”

नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे (2015-16) की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में 48.5 प्रतिशत महिलाएं सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं जबकि शहरों में 77.5 प्रतिशत महिलाएं. कुल मिलाकर देखा जाए तो 57.6 प्रतिशत महिलाएं इनका इस्तेमाल करती हैं.

हाईकोर्ट की बेंच का कहना है कि सैनिटरी नैपकिन ज़रूरी चीजों में से एक है और इस पर इतना ज़्यादा टैक्स लगाने के पीछे कोई वजह नहीं हो सकती.

अदालत ने पूछा है, “आप सिंदूर, काजल और बिंदी को जीएसटी के दायरे से बाहर रखते हैं और सैनिटरी नैपकिन पर टैक्स लगाते हैं. क्या आपके पास इसका कोई जवाब है?”

महिला और बाल कल्याण मंत्रालय क्या कहता है?

अदालत ने सरकार से पूछा है कि क्या सैनिटरी नैपकिन पर टैक्स लगाने के बारे में महिला और बाल कल्याण मंत्रालय की राय ली गई थी या नहीं. कोर्ट ने कहा है कि यह फ़ैसला एक बड़े तबके को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए था.

बीबीसी ने महिला और बाल कल्याण मंत्रालय से इस बारे में बात करने की कोशिश की. बीबीसी के भेजे तीन ईमेल्स का मंत्रालय की ओर से कोई जवाब नहीं आया.

हालांकि मेनका गांधी के पर्सनल सेक्रेटरी मनोज अरोड़ा ने बीबीसी से फ़ोन पर हुई बातचीत में कहा कि मंत्रालय के पास इस बारे में अब तक कोई लिखित जानकारी नहीं आई है इसलिए वो कुछ नहीं कह सकते.

मामले की अगली सुनवाई 14 दिसंबर को होना है. बीबीसी ने ज़रमीना के वकील अमित जॉर्ज से इस बारे में बात करने की कोशिश की.

उन्होंने कहा कि चूंकि मामला अभी अदालत में है इसलिए एक वकील के तौर पर उनका इस बारे में कुछ कहना उचित नहीं होगा.

सैनिटरी नैपकिन पर टैक्स के ख़िलाफ़ आवाज उठाने वाली कांग्रेस सांसद सुष्मिता देव मानती हैं कि औरतों के लिए सैनिटरी नैपकिन किसी जीवनरक्षक दवा से कम नहीं है.

उन्होंने कहा,”सैनिटरी नैपकिन का इतना महंगा होना महिलाओं के जीवन के अधिकार का हनन है.”

सुष्मिता कहती हैं कि इतने बड़े फ़ैसले करते वक़्त औरतों की बड़ी आबादी को ध्यान में नहीं रखा जाता, इसकी एक वजह पॉलिसी मेकिंग और राजनीति में औरतों की भागीदारी न होना भी है.

महाराष्ट्र में गरीब महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए काम करने वाले विनय कहते हैं,”गरीब महिलाएं हर महीने सैनिटरी नैपकिन के लिए सैकड़ों रुपये खर्च नहीं कर सकतीं. ऐसे में उन्हें फटे-पुराने और गंदे कपड़ों से काम चलाना पड़ाता है. उनके लिए मासिक धर्म का वक़्त बेहद मुश्किल होता है. वो तमाम तरह के संक्रमणों का शिकार हो जाती हैं और ऐसे ही जीने पर मजबूर हैं.” (बीबीसी पर सिन्धुवासिनी की रिपोर्ट)