क्या पार्टी में अपनों से ही खुन्नस निकालते हैं मोदी

नई दिल्ली: सीबीआई की विशेष अदालत के इस फ़ैसले से लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के राष्ट्रपति पद की होड़ में शामिल होने की संभावनाएं ख़त्म हो गई हैं. लेकिन इसके साथ ही एक चर्चा शुरू हुई है और वो है कि मोदी ने जनबूझकर दोनों नेताओं को राष्ट्रपति पद की दौड से बाहर किया. बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक राजनीतिक गलियारों में खुले तौर पर ऐसा कहा जा रहा है कि ये पूरा मामला, यानी बाबरी मस्जिद का पिटारे इसलिए खुल गया ताकि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी राष्ट्रपति पद की होड़ से बाहर ही रहें.

राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने तो यहां तक आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री मोदी के नियंत्रण में चलने वाली सीबीआई की ये साजिश है. कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने भी ऐसा ही आरोप लगाया था.
नेता कारतूस हैं, ख़ाली खोखे का क्या काम?

जानकार ये भी कहते हैं कि मोदी जिस सीढ़ी से चढ़ते हैं उसे ही काट देते हैं. उन्होंने काम निकल जाने पर हर उस शख्स को दगा दिया जिसने मोदी की मदद की.

मीडिया में ही है चर्चा?
हालांकि भारतीय जनता पार्टी को लंबे समय से कवर करते आ रहे वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार प्रदीप कौशल बीबीसी से कहते हैं, “आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की चर्चा केवल मीडिया में देखने को मिली. भाजपा के अंदर जो व्यवस्था है उसके अंदर उनकी दावेदारी की चर्चा भी नहीं है.”

भारतीय जनता पार्टी पर नज़र रखने वाले दूसरे विश्लेषकों की भी मानें तो आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी का ये केस दोबारा न खुलता तब भी उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए नमांकित नहीं किया जाता.
लेकिन अब ये केस खुल जाने के बाद ऐसे मामले चलाए जाने से नैतिक रूप से उनकी दावेदारी की बात भी नहीं उठेगी.

इसकी बुनियादी वजह बताते हुए प्रदीप कौशल कहते हैं, “राष्ट्रपति तो वही बनेगा जिसके साथ मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कंफ़र्ट लेवल ठीक ठाक हो. अगर आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के दावेदारी की कई वजहें हो सकती हैं, तो कुछ वजहें तो ऐसी भी होंगी ही जो उन्हें दावेदार नहीं बनाने लायक हैं.”

कई विश्लेषक इन नेताओं की मौजूदा स्थिति के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ इनके उतार चढ़ाव भरे संबंधों को एक वजह मानते हैं.
नरेंद्र मोदी कभी लालकृष्ण आडवाणी के भरोसेमंद हुआ करते थे. 1990 की राम रथ यात्रा में वे आडवाणी के सहयोगी की भूमिका में थे. इस यात्रा के संयोजक तो प्रमोद महाजन थे लेकिन गुजरात संयोजक की भूमिका नरेंद्र मोदी की थी.

आडवाणी का मोदी पर ऐसा भरोसा था कि गुजरात दंगे के समय में उन्होंने वाजपेयी की चिंताओं को महत्व नहीं देते हुए, मोदी के राज्य के मुख्यमंत्री पद पर बने रहने की भूमिका तैयार कर दी.
अप्रैल, 2002 में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक गोवा में हुई थी.

इस बैठक को कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी बताते हैं, “इस बैठक से पहले वाजपेयी की इच्छा मोदी से इस्तीफ़ा लेने की थी. लेकिन आडवाणी ने चुपके से अरुण जेटली को गुजरात भेजकर मोदी को केवल इस्तीफ़े का प्रस्ताव देने को तैयार किया.”

विजय त्रिवेदी आगे कहते हैं, “जब वाजपेयी कार्यकारिणी में पहुंचे, उससे पहले रणनीति के तहत मोदी अपने इस्तीफ़े का प्रस्ताव रख चुके थे और मंच से ही प्रमोद महाजन उस प्रस्ताव को नामंजूर करने की बात कह चुके थे, ऐसे में वहां मोदी-मोदी के नारे लग रहे थे, जिसे देखकर वाजपेयी नाराज़ भी हो गए थे.”

वहीं पर मौजूद प्रदीप कौशल बताते हैं, “नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़े की पेशकश पर वाजपेयी जी ने कहा था कि देखते हैं, कल इस पर विचार करेंगे. तब आडवाणी कैंप के वैंकया नायडू ने कहा था कि क्या नरेंद्र भाई का इस्तीफ़ा 24 घंटे तक यहीं पड़ा रहेगा.”

आडवाणी की रणनीति का करिश्मा ऐसा था कि वाजपेयी केवल नाराज़ होकर रह गए और मोदी ने कामयाब मुख्यमंत्री बनने की उस दिशा में क़दम बढ़ाए जहां से वे प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचने में सफल रहे.

11 साल बाद भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक एक बार फिर गोवा में हुई. जून, 2013 में हुई इस बैठक में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की घोषणा की जाने की तैयारी थी.

आडवाणी इससे इतने अपसेट थे कि वे इस कार्यकारिणी में नहीं गए और उन्होंने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए एक चिट्ठी लिखी. जिसके चलते पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह की अगुवाई में नरेंद्र मोदी को केवल चुनावी रणनीति समिति का चेयरमैन बनाया जा सका.

प्रदीप कौशल बताते हैं, “आडवाणी जी उस समय में एक तरह से कोप भवन में चले गए और मोदी के साथ उनके रिश्तों की जो गर्माहट थी वो समय के साथ ख़त्म होती गई.”

आडवाणी के विरोध के बाद भी मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने और लालकृष्ण आडवाणी पूरे चुनाव अभियान से दूर रहे.

मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को अप्रत्याशित बहुमत मिला और इसके बाद लालकृष्ण आडवाणी को लोगों ने मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान बहुत भावुक भी देखा. लेकिन इस सब के बीच मोदी अपने राजनीतिक मेंटॉर से बहुत दूर जा चुके थे.

जोशी से भी नहीं बनी
भारतीय जनता पार्टी के अंदर कभी लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को एक खेमे में नहीं रहे लेकिन मौजूदा परिस्थितियो में दोनों नरेंद्र मोदी की उपेक्षा के शिकार हैं.

नरेंद्र मोदी का मुरली मनोहर जोशी से रिश्ता उतार चढ़ाव भरा रहा है. कभी मोदी उनके भी निकट सहयोगी हुआ करते थे. 1992 में उनकी एकता यात्रा के संयोजक नरेंद्र मोदी ही थे.

विजय त्रिवेदी एक वाकया बताते हैं, “उस यात्रा में मुरली मनोहर जोशी से आगे आगे चल रहे थे मोदी. जहां जोशी का पड़ाव होता, वहां आधा घंटे पहले ही पहुंच जाते थे. और तो और जोशी की भाषण की बात अपने भाषण में बोल चुके होते थे. इससे नाराज़ होकर जोशी जी ने उन्हें साथ में चलने को कहा.”

2013 में जोशी भी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के ख़िलाफ़ थे. इसके बाद 2014 में मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़ने का मन बनाया. वाराणसी मुरली मनोहर जोशी की सीट थी, ऐसे में इलाके में पोस्टर वार जैसी स्थिति भी देखने को मिली.

बाद में मुरली मनोहर जोशी को कानपुर की सीट दी गई. हालांकि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मुरली मनोहर जोशी ने संघ के रास्ते मोदी से अपने संबंध बेहतर करने की कोशिश ज़रूर की.

उन्होंने अपनी ओर से राष्ट्रपति पद के लिए लॉबिंग भी शुरू कर दी थी, इस सिलसिले में वे संघ के प्रमुख मोहन भागवत से मिले और प्रधानमंत्री मोदी के साथ डिनर भी कर चुके हैं.

लेकिन लगता तो यही है कि मोदी, प्रधानमंत्री पद के लिए अपने उम्मीदवारी पर मुरली मनोहर जोशी का विरोध भूले नहीं हैं.

 

प्रदीप कौशल बताते हैं, “दरअसल जोशी और आडवाणी उम्र के उस पड़ाव में भी पहुंच चुके हैं जो मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की रणनीति में फिट नहीं बैठ रहे हैं.”

उमा भारती के ‘विनाश पुरुष’
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किए जाने से पहले उमा भारती कई बार उनके भाषण शैली पर सवाल उठा चुकी थीं.

तब उमा भारती कहा करती थीं कि मोदी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वक्ता नहीं हैं.

इसी दौरान कांग्रेस पार्टी ने उमा भारती का एक वीडियो टेप जारी किया था जिसमें उमा भारती नरेंद्र मोदी के बारे में कह रही हैं कि वे विकास पुरुष नहीं हैं बल्कि विनाश पुरुष हैं.

उमा भारती अपने विद्रोही स्वभाव के लिए मशहूर रही हैं. वे नवंबर, 2004 में पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी पर भी सवाल उठा चुकी हैं.

प्रदीप कौशल बताते हैं, “अब उमा भारती में पहले जैसा फ़ायर नहीं रहा. स्वास्थ्य के नज़रिए से हो या उम्र के हिसाब से वो वैसी उग्र नहीं रहीं.”

उन्हें पार्टी से निलंबित भी किया गया था. इसके बाद वे 7 जून, 2011 को पार्टी में वापस लौटीं. हालांकि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उमा भारती को नमामि गंगे जैसी अहम ज़िम्मेदारी सौंपी गई.

बाबरी मस्जिद ढहाने के आरोप में मामला चलाए जाने पर विपक्ष उनसे इस्तीफ़े की मांग कर सकता है.

प्रदीप कौशल कहते हैं, “उमा भारती पर दबाव तो बढ़ेगा. लेकिन ये ऐसा मुक़दमा है जिसमें उनके इस्तीफ़े से विपक्ष को कोई फ़ायदा नहीं होगा, बल्कि बीजेपी को ही फ़ायदा होगा.” (courtsey-BBC)