कोरेगांव भीमा का पूरा कांड एक नज़र में, आँखें खोलने वाला है बीबीसी का ये लेख


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नई दिल्ली :  कोरेगांव भीमा की घटना के बाद  कोई मोहम्द खालिद को दोष दे रहा है तो कोई कह रहा है कि जिग्नेश मेवाणी ने अपने भाषण से लोगों को भड़काया. बीबीसी का ये लेख भीमा कोरेगांव की पूरी हकीकत कम शब्दों में बयान कर रहा है. हम साभार यहां प्रस्तुत कर रहे हैं. लेखक हैं राम पुनियानी

भीमा कोरेगांव में दलितों पर हुए कथित हमले के बाद महाराष्ट्र के कई इलाकों में विरोध-प्रदर्शन किए गये.

दलित समुदाय भीमा कोरेगांव में हर साल बड़ी संख्या में जुटकर उन दलितों को श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने 1817 में पेशवा की सेना के ख़िलाफ़ लड़ते हुए अपने प्राण गंवाये थे.

ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश सेना में शामिल दलितों (महार) ने मराठों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों (पेशवा) को हराया था. बाबा साहेब अंबेडकर खुद 1927 में इन सैनिकों को श्रद्धांजलि देने वहां गए थे.

इस साल, इस उत्सव का आयोजन बड़े पैमाने पर किया गया क्योंकि यह युद्ध की 200वीं वर्षगांठ थी.

रिपोर्ट है कि हिंदुत्ववादी संगठन (समस्त हिंदू आघाडी, ऑल हिंदू फ्रंट) ने हिंसा फैलाने की शुरुआत की, जिसमें एक शख्स की मौत हो गयी जबकि बड़ी संख्या में वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया.

कोरेगांव में भड़की हिंसा के बाद क्या हुआ?

ठीक इसी समय दलित नेता जिग्नेश मेवाणी ने पेशवा शासन के मुख्यालय शनिवार वाडा (पुणे) में आयोजित एक रैली में भाजपा और संघ को आधुनिक पेशवा बताते हुए उनके ख़िलाफ़ लड़ने का आह्वाण किया.

भीमा कोरेगांव की लड़ाई आज प्रचलित कई मिथकों को तोड़ती हैं. अंग्रेज़ अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए इस लड़ाई में थे तो वहीं पेशवा अपने राज्य की रक्षा के प्रयास के लिए.

जैसा कि अंग्रेज़ अपने साम्राज्य को बढ़ाना चाहते थे तो उन्होंने बड़ी संख्या में दलितों को अपनी सेना में भर्ती किया था. इनमें महार, परायास और नमशुद्र कुछ नाम थे. इन वर्गों को उनकी वफादारी और आसान उपलब्धता के लिए भर्ती किया गया था.

पेशवा सेना के पास भाड़े के अरब सैनिकों के साथ ही गोस्वामी भी थे. यह हिंदू बनाम मुस्लिम युद्ध के मिथक को खारिज करता है, क्योंकि एक तरफ इब्राहिम ख़ान गारदी शिवाजी की सेना का हिस्सा थे तो दूसरी तरफ अरब सैनिक बाजीराव की सेना में शामिल थे.

दुर्भाग्य से आज हम उस घटना को सांप्रदायिक चश्मे से देखना चाहते हैं और उन राज्यों की अनदेखी कर रहे हैं जो सत्ता और धन लोलुप थे.

बाद में, अंग्रेज़ों ने दलित/महारों को नियुक्त करना बंद कर दिया क्योंकि निम्न पद पर कार्यरत उच्च जाति के सैनिक, दलित अधिकारियों की न तो बातें मानते और न ही उन्हें सलाम करते थे.

अंबेडकर की कोशिशें

आगे चलकर अंबेडकर ने प्रयास किया कि सेना में दलितों की भर्ती की जाये और उन्होंने सुझाव दिया कि इस समस्या को दूर करने के लिए महार रेजिमेंट का गठन होना चाहिए.

मीडिया को क्यों नहीं दिखता दलितों का संघर्ष?

दलितों पर कठोर अत्याचार

यह सच है कि पेशवा शासन की नीतियां ब्राह्मणवादी थीं. शुद्रों को थूकने के लिए अपने गले में हांडी लटकाना जरूरी था, ताकि उनके नाक मुंह से गंदगी न फैले.

साथ ही कमर पर झाड़ू बांधना जरूरी था जिससे धरती पर पड़े उनके पैरों के निशान मिटते रहें.

यह दलितों पर कठोर अत्याचार के सबसे चरम बिंदु की ओर इशारा करता है.

सहारनपुर के दलितों की कई शिकायतें हैं और एक संगठन उन शिकायतों को आवाज़ दे रहा है.

अंग्रेज़ बाजीराव के ख़िलाफ़ क्यों लड़े?

क्या अंग्रेज़ ब्राह्मणवादी कठोरता को मिटाने के लिए बाजीराव के ख़िलाफ़ लड़े? बिल्कुल नहीं. वो केवल अपना व्यापार बढ़ाने और लूट की मंशा से अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर रहे थे.

ठीक इसी प्रकार महार सैनिक अपने मालिक के प्रति निष्ठा की भावना से अंग्रेज़ों के लिए लड़ रहे थे.

आधुनिक शिक्षा के प्रभाव के कारण सामाजिक सुधारों को बाद में उठाया गया. ब्रिटिश साम्राज्य के प्रशासन में मातहतों के प्रबंधन के लिए आधुनिक शिक्षा को आरम्भ किया गया था.

बाद में अंग्रेज़ों की लूट की नीति के परिणामस्वरूप सामाजिक सुधार ने जोर पकड़ा.

जहां तक अंग्रेज़ों का सवाल है तो उनकी नीतियों ने अनजाने में यहां की सामाजिक संरचनाओं को प्रभावित किया.

क्योंकि बदलते परिदृष्य में जाति के शोषण के प्रति चेतना को ज्योतिराव फुले ने आकार दिया.

दलितों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया सोचना बेतुका

यह सोचना भी बेतुका है कि पेशवा राष्ट्र के लिए लड़ रहे थे जबकि दलित अंग्रेज़ों का साथ दे रहे थे. राष्ट्रवाद की अवधारणा तो अंग्रेज़ी शासन के दौरान आयी. जो राष्ट्रवाद आया वो भी दो किस्म का था.

पहला, भारतीय राष्ट्रवाद उद्योपति, व्यापारियों, समाज के शिक्षित वर्गों और श्रमिकों के उभरते वर्ग के जरिये आया. दूसरा, मुस्लिम और हिंदू धर्म के नाम पर राष्ट्रवाद, जो ज़मींदार और रियासतों के राजाओं से शुरू होता है.

पिछले कुछ सालों में वर्तमान सरकार की नीतियों के कारण दलितों में असंतोष बढ़ रहा है.

इसके पीछे हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे दलित छात्र रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या और ऊना में गौ रक्षक समिति के सदस्यों का दलित युवकों को बुरी तरह पीटने जैसी घटनाओं का होना शामिल है.

कोरेगांव में दलितों का बड़ी संख्या में जुटना अतीत से अपने आइकन की तलाश की इच्छा को दर्शाता है, और उन पर किया गया हमला उनकी महत्वकांक्षाओं को दबाने के उद्देश्य से किया गया है.