जल्ली कट्टू का पूरा सच, ये खेल है क्या? ऐसा क्या होता है बैलों के साथ जिस पर एतराज है

नई दिल्ली: जल्ली कट्टू पर देश क परंपराओं को हावाला देकर पूरा समाज एक तरफ खड़ा है. जहां देश है , जहां भीड़ है वहीं मीडिया भी सुर में सुर मिला रहा है. जब मामला वोटों का हो तो सबकी जुबान पर ताले लग जाते हैं. यही वजह है कि गोवंश का सम्मान करने और उसकी पूजा करने वाली पार्टी भी इस मामले पर चुप है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि सुप्रीमकोर्ट ने जलीकट्टू पर रोक क्यों लगाई?

 क्या आप जानते हैं कि पेटा जल्ली क्ट्टु पर रोक क्यों चाहता है? जी देश के लोगों को ये जानने का पूरा हक है कि आखिर जल्ली कट्टू पर रोक लगाने वालों कापक्ष क्या है. खास ध्यान देने वाली बात ये है कि न तो पेटा न ही सुप्रीम कोर्ट दोनों ही जनमत से प्रभावित होने वाली संस्थाएं नहीं हैं 

इसलिए फैसला गुणदोष के आधार पर हो रहा है. आपको बताते हैं कि जल्ली कट्टू है क्या और इस पर एतराज क्यों है

ये जल्ली कट्टू है क्या?

इन बीच सवाल उठता है कि जल्लीकट्टु है क्या, आखिर क्यों इसे लेकर हजारों लोग सड़कों पर हैं और इसके पीछे की क्या कहानी है? दरअसल, फसल कटाई के मौके पर तमिलनाडु में चार दिन का पोंगल उत्सव मनाया जाता है 

जिसमें तीसरा दिन मवेशियों के लिए होता है. तमिल में जली का अर्थ है सिक्के की थैली और कट्टू का अर्थ है बैल का सिंग. जल्लीकट्टू को तमिलनाडु के गौरव तथा संस्कृति का प्रतीक माना जाता है. इस खेल की परंपरा 2500 साल पुरानी बताई जाती है.

पोंगल उत्सव के दौरान होने वाले इस खेल में परंपरा के अनुसार शुरुआत में तीन बैलों को छोड़ा जाता है जिन्हें कोई नहीं पकड़ता. 

बताया जाता है कि ये गांव के सबसे बूढ़े बैल होते हैं. जिन्हें गांव की शान के रूप में देखा जाता है. इन बैलों के जाने के बाद जलीकट्टू का असली खेल शुरू होता है.

सिक्कों की थैली बैलों के सिंगों पर बांधी जाती है. फिर उन्हें भड़काकर भीड़ में छोड़ दिया जाता है, ( लेख में आपको नीचे पता चलेगा कि भड़काने की प्रक्रिया है क्या ?  यही तो असली बवाल की जड़ नहीं) ताकि लोग उन्हें पकड़कर सिक्कों की थैली हासिल कर सकें.

 इस खेल में बैलों पर काबू पाने वाले लोगों को इनाम भी दिया जाता है. इस खेल के लिए बैल को खूंटे से बांधकर उसे उकसाने की प्रैक्टिस करवाई जाती है.

बताया जाता है कि तमिलनाडू में बैलों को गायों के मुकाबले ज्यादा महत्व दिया जाता है. क्योंकि वो एक नहीं बल्कि कई प्रकार के काम में इस्तेमाल किए जाते हैं जैसे बैलगाड़ी खींचने में, खेती के दौरान हल चलाने में और गायों के गर्भधारण की प्रक्रिया में काम आते हैं.

जलीकट्टु खेल के लिए मंदिरों के बैलों को तैयार किया जाता है. इसके पीछे भी एक रोचक वजह है, वो ये कि मंदिरों के इन बैलों को सभी मवेशियों का मुखिया माना जाता है. खेल के दौरान इन बैलों को एक-एक कर को भीड़ में छोड़ दिया जाता है. जिसके बाद लोग उन्हें पकड़ने के लिए और उन पर सवार होने की कोशिश करते हैं.

इस खेल में जिन बैलों को आसानी से पकड़ लिया जाता है उन्हें कमजोर माना जाता है और उन्हें घरेलू कामों के लिए रख लिया जाता है. वहीं, जो बैल इस खेल में पकड़ में नहीं आते उन्हें मजबूत माना जाता है और उन्हें गायों के बेहतर नश्ल को बढ़ाने के लिए काम में लाए जाते हैं.

लेकिन, अब इस खेल के पैमाने या यूं कहें तो इस परंपरा के तरीके में बदलाव नजर आने लगा है. यही कारण है कि पशु प्रेमी इसके खिलाफ आवाज उठाने लगे हैं और मामला कोर्ट तक पहुंच चुका है. उनका मानना है कि जल्‍लीकट्टू खेल के दौरान बैलों के साथ क्रूरता की घटनाएं होती हैं. इस खेल में रोमांच लाने के लिए बैलों को भड़काया जाता है इसके लिए उन्हें शराब पिलाने, नुकीली चीजों से दागने, उनपर सट्टा लगाने से लेकर उनकी आंखों में मिर्च डाला जाता है और उनकी पूंछों को मरोड़ा तक जाता है, ताकि वे तेज दौड़ सकें.

इतना ही नहीं एक जानवर को हज़ारों लोगों की भीड़ के बीच में छोड़ दिया जाना जो कि उस पर टूट पड़े, वो जानवर जान बचाने के लिए भागे. घबराए जनवर को भीड़ तरह तरह से प्रताड़ित करे उसकी पूंछ मरोड़े. उसकी नाक में उंगली डाले. क्या ये अत्याचार नहीं है. हम मनुष्य इसका आनंद कैसे ले सकते हैं. क्या आप कल्पना कर सकते है कि आपके पालतू जानवर के साथ ये सब हो . सोचिए ज़रूर. फैसला बहुमत के पक्ष में ही होना है लेकिन हम एक असर तो डाल ही सकते हैं.

पशु कल्याण संगठनों के प्रयास के बाद साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने जानवरों के साथ हिंसक बर्ताव को देखते हुए इस खेल को बैन कर दिया था. जिसके बाद से लोग इसके लिए प्रदर्शन कर रहे हैं. मामले की गंभीरता को देखते हुए केंद्र सरकार ने भी इसके हल के लिए हरसंभव प्रयास की बात कही है. इधर, जल्लीकट्टू पर अध्यादेश को कानून मंत्रालय ने मंजूरी दे दी है और इसे राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेज दिया गया है.