मध्यप्रदेश में कांग्रेस को चल पाएगा ये दांव ?

मध्यप्रदेश में 28 सीटों पर होने वाला उपचुनाव यहां सिर्फ दो दलों नहीं बल्कि 2 चेहरों की प्रतिष्ठा का भी चुनाव है जिसमें एक तेरह सालों तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहें और दूसरे पन्द्रह महिने तक सरकार के अगुआ,  दोनो के बीच चुनावी जंग में मुद्दों से ज्यादा हार-जीत का रास्ता बेहतर प्रबंधन तय करेगा.

एक की ताकत भाजपा का बड़ा कैडर, सिंधिया घराने के पारम्परिक आस्था रखने वाले वोटर, तो दुसरे की ताकत प्रचार का भावनात्मक तरीका, जिसमें बागियों के बिकने को लेकर लोगों में व्याप्त रोष को भुनाने के साथ-साथ मेरी क्या गलती जैसे नाथ खेमे के सोशल मिडिया के कैम्पेन भी है.

ऐसे में ये चुनाव जितना दिखता है उतना आसान नहीं है भाजपा के पास यदि अपने 15 सालों के कामों के बूते चुनावी नैया पार करने का रस्ता होता, तो 15 महीने पहले ही किसानों कि कर्ज माफी के नाम पर कांग्रेस के हाथ नहीं पीटती, 15 महिने में कमलनाथ ने यदि मतदाताओं की नाराजी जुटाई भी है तो उसका एक बड़ा हिस्सा भाजपा के प्रत्याशियों के खाते भी जायेगा, क्योंकि ये वहीं चेहरे है जो कमलनाथ कि सरकार का भी हिस्सा थे.

ऐसे में अपने कामों को लेकर या विकास के नाम पर जनता ने 15 महीनों में इनकी वो नाकामी देखी है जिसे हर सभा में कमलनाथ सरकार में अपनी सुनवाई न होने का बहाना बनाकर भाजवा के प्रत्याशी कम करने की कोशिश में दिखते है, उस सबसे इतर भाजपा की चुनौती यहां अपनों को साधने की है.

क्योंकि पिछले चुनाव में जिन चेहरों में इनके प्रत्याशियों को हराया था, उन्हीं चेहरों के लिये अब भाजपा के पूर्व प्रत्याशियों को भी संघ की देखरेख में प्रचार के काम में लगाना है ऐसे में भीतरघात भी भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है.

लेकिन इस सब के बाद भी भाजपा इस चुनाव में सरकार में बनें रहने के लिये महज 8 से 9 सीटों की दरकार, पुरी सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल और अपने बुथ स्तर तक जमीनी कैडर के चलते चुनाव मजबुत स्थिति में दिखती है. अंतिम वक्त का प्रबंधन भी भाजपा का मजबूत दिखता है. ऐसे में भावनात्मक कार्य और फ्लोटिंग वोटर कांग्रेस को कितना लाभ दिलायेंगे, कहा नहीं जा सकता.

(लेखक अतुल वैद्य मध्यप्रदेश की ज़मीन से जुड़े पत्रकार हैं)

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