रवीश कुमार की वायरल पोस्ट का जवाब एमजे अकबर की जगह रोहित सरदाना ने दिया

कल रवीश कुमार ने एम जे अकबर के नाम पर एक खुली चिट्ठी लिखी थी। चिट्ठी में एमजे अकबर से कई तीखे सवाल किए गए थे.  रवीश ने पूछा था कि क्या बार बार निष्ठाएं बदलते रहना अकबर के लिए सही है ? रवीश ने अकबर के पत्रकारिता से राजनीति में जाने और वापस पत्रकारिता में आने और फिर से नेता बन जाने पर सवाल किए थे . रवीश ने ये भी पूछा था कि कभी अकबर कांग्रेस से लोकसभा में रहने के बाद अचानक बीजेपी से राज्यसभा में जाने और मंत्री बन जाने जैसे बड़े बदलाव अकबर ने कैसे किए ? रवीश कुमार का ये खुला पत्र सोशल मीडिया पर छा गया. इस पत्र में रवीश की सोशल मीडिया पर गाली गलौज की पीड़ा भी दिखाई दे रही थी.  रवीश के पत्र से माहौल बदला तो संघ खेमे ने भी अपने एक पत्रकार रोहित सरदाना को मैदान में उतार दिया. रोहित सरदाना ने रवीश को एक जवाबी चिट्ठी लिखी . हालांकि रोहित रवीश पर कोई बड़ा सवाल तो नहीं उठा सके लेकिन उन्होंने ये एतराज जरूर उठाया कि उन्होंने अकबर पर खुली चिट्ठी क्यों  लिखी . चिट्ठी के जवाब में रोहित ने राजदीप, बरखा, आशीष खेतान पर सवाल उठाए लेकिन अकबर वाले उदाहरण से ये जवाबी नज़ीरें मेल नहीं खाती थी. जो भी हो खिसियानी बिल्ली की खंबा नोचने वाली हरकत ही सही . रोहित सरदाना की चिट्ठी है मज़ेदार… यहां हम दे रहे हैं दोनों चिट्ठियां . बेहतर होगा आप खुद करें फैसला कि किसकी बात में दम है

रवीश की चिट्ठी MJ अकबर के नाम

आदरणीय अकबर जी,

प्रणाम,

ईद मुबारक़। आप विदेश राज्य मंत्री बने हैं, वो भी ईद से कम नहीं है। हम सब पत्रकारों को बहुत ख़ुश होना चाहिए कि आप भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता बनने के बाद सांसद बने और फिर मंत्री बने हैं। आपने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा। फिर उसके बाद राजनीति से लौट कर सम्पादक भी बने। फिर सम्पादक से प्रवक्ता बने और मंत्री। शायद मैं यह कभी नहीं जान पाऊँगा कि नेता बनकर पत्रकारिता के बारे में क्या सोचते थे और पत्रकार बनकर पेशगत नैतिकता के बारे में क्या सोचते थे? क्या आप कभी इस तरह के नैतिक संकट से गुज़रे हैं? हालाँकि पत्रकारिता में कोई ख़ुदा नहीं होता लेकिन क्या आपको कभी इन संकटों के समय ख़ुदा का ख़ौफ़ होता था ?

अकबर जी, मैं यह पत्र थोड़ी तल्ख़ी से भी लिख रहा हूँ। मगर उसका कारण आप नहीं है।आप सहारा बन सकते हैं। पिछले तीन साल से मुझे सोशल मीडिया पर दलाल कहा जाता रहा है। जिस राजनीतिक परिवर्तन को आप जैसे महान पत्रकार भारत के लिए महान बताते रहे हैं, हर ख़बर के साथ दलाल और भड़वा कहने की संस्कृति भी इसी परिवर्तन के साथ आई है। यहाँ तक कि मेरी माँ को रंडी लिखा गया और आज कल में भी इस तरह मेरी माँ के बारे में लिखा गया। जो कभी स्कूल नहीं जा सकी और जिन्हें पता भी नहीं है कि एंकर होना क्या होता है, प्राइम टाइम क्या होता है। उन्होंने कभी एनडीटीवी का स्टुडियो तक नहीं देखा है। वो बस इतना ही पूछती है कि ठीक हो न।अख़बार बहुत ग़ौर से पढ़ती है। जब उसे पता चला कि मुझे इस तरह से गालियाँ दी जाती हैं तो घबराहट में कई रात तक सो नहीं पाई।

अकबर जी, आप जब पत्रकारिता से राजनीति में आते थे तो क्या आपको भी लोग दलाल बोलते थे, गाली देते थे, सोशल मीडिया पर मुँह काला करते थे जैसा मेरा करते हैं। ख़ासकर ब्लैक स्क्रीन वाले एपिसोड के बाद से। फिर जब कांग्रेस से पत्रकारिता में आए तो क्या लोग या ख़ासकर विरोधी दल, जिसमें इन दिनों आप हैं, आपके हर लेखन को दस जनपथ या किसी दल की दलाली से जोड़ कर देखते थे? तब आप ख़ुद को किन तर्कों से सहारा मिलता था? क्या आप मुझे वे सारे तर्क दे सकते हैं? मुझे आपका सहारा चाहिए।

मैंने पत्रकारिता में बहुत सी रिपोर्ट ख़राब भी की है। कुछ तो बेहद शर्मनाक थीं। पर तीन साल पहले तक कोई नहीं बोलता था कि मैं दलाल हूँ। माँ बहन की गाली नहीं देता था। अकबर सर, मैं दलाल नहीं हूँ। बट डू टेल मी व्हाट शूड आई डू टू बिकम अकबर। वाजपेयी सरकार में मुरली मनोहर जोशी जी जब मंत्री थे तब शिक्षा के भगवाकरण पर खूब तक़रीरें करता था। तब आपकी पार्टी के दफ्तर में मुझे कोई नफ़रत से बात नहीं करता था। डाक्टर साहब तो इंटरव्यू के बाद चाय भी पिलाते थे और मिठाई भी पूछते थे। कभी यह नहीं कहा कि तुम कांग्रेस के दलाल हो इसलिए ये सब सवाल पूछ रहे हो। उम्र के कारण जोशी जी गुस्साते भी थे लेकिन कभी मना नहीं किया कि इंटरव्यू नहीं दूँगा और न ऐसा संकेत दिया कि सरकार तुमसे चिढ़ती है। बल्कि अगले दिन उनके दफ्तर से ख़बरें उड़ा कर उन्हें फिर से कुरेद देता था।

अब सब बदल गया है। राजनीतिक नियंत्रण की नई संस्कृति आ गई है। हर रिपोर्ट को राजनीतिक पक्षधरता के पैमाने पर कसने वालों की जमात आ गई। यह जमात धुआँधार गाली देने लगी है। गाली देने वाले आपके और हमारे प्रधानमंत्री की तस्वीर लगाए हुए रहते हैं और कई बार राष्ट्रीय स्वयं संघ से जुड़े प्रतीकों का इस्तमाल करते हैं। इनमें से कई मंत्रियों को फालो करते हैं और कइयों को मंत्री। ये कुछ पत्रकारों को भाजपा विरोधी के रूप में चिन्हित करते हैं और बाकी की वाहवाही करते हैं।

निश्चित रूप से पत्रकारिता में गिरावट आई है। उस दौर में बिल्कुल नहीं आई थी जब आप चुनाव लड़े जीते, फिर हारे और फिर से संपादक बने। वो पत्रकारिता का स्वर्ण काल रहा होगा। जिसे अकबर काल कहा जा सकता है अगर इन गाली देने वालों को बुरा न लगे तो। आजकल भी पत्रकार प्रवक्ता का एक अघोषित विस्तार बन गए है। कुछ घोषित विस्तार बनकर भी पूजनीय हैं। मुझसे तटस्थता की आशा करने वाली गाली देने वालों की जमात इन घोषित प्रतिकारों को कभी दलाल नहीं कहती। हालाँकि अब जवाब में उन्हें भी दलाल और न जाने क्या क्या गाली देने वाली जमात आ गई है। यह वही जमात है जो स्मृति ईरानी को ट्रोल करती है।

आपको विदेश मंत्रालय में सहयोगी के रूप में जनरल वी के सिंह मिलेंगे जिन्होंने पत्रकारों के लिए ‘प्रेस्टिट्यूड’ कहा। उनसे सहमत और समर्थक जमात के लोग हिन्दी में हमें ‘प्रेश्या’ बुलाते हैं। चूँकि मैं एन डी टी वी से जुड़ा हूँ तो N की जगह R लगाकर ‘रंडी टीवी’ बोलते हैं। जिसके कैमरों ने आपकी बातों को भी दुनिया तक पहुँचाया है। क्या आपको लगता है कि पत्रकार स़ख्त सवाल करते हुए किसी दल की दलाली करते हैं? कौन सा सवाल कब दलाली हो जाता है और कब पत्रकारिता इस पर भी कुछ रौशनी डाल सकें तो आप जैसे संपादक से कुछ सीख सकूँगा। युवा पत्रकारों को कह सकूँगा कि रवीश कुमार मत बनना, बनना तो अकबर बनना क्योंकि हो सकता है अब रवीश कुमार भी अकबर बन जाये।

मै थोड़ा भावुक इंसान हूँ । इन हमलों से ज़रूर विचलित हुआ हूँ। तभी तो आपको देख लगा कि यही वो शख्स है जो मुझे सहारा दे सकता है। पिछले तीन साल के दौरान हर रिपोर्ट से पहले ये ख़्याल भी आया कि वही समर्थक जो भारत के सांस्कृतिक उत्थान की आगवानी में तुरही बजा रहे हैं, मुझे दलाल न कह दें और मेरी माँ को रंडी न कह दें। जबकि मेरी माँ ही असली और एकमात्र भारत माता है। माँ का ज़िक्र इसलिए बार बार कह रहा हूँ क्योंकि आपकी पार्टी के लोग ‘एक माँ की भावना’ को सबसे बेहतर समझते हैं। माँ का नाम लेते ही बहस अंतिम दीवार तक पहुँच कर समाप्त हो जाती है।

अकबर जी, मैं यह पत्र बहुत आशा से लिख रहा हूँ । आपका जवाब भावी पत्रकारों के लिए नज़ीर बनेगा। जो इन दिनों दस से पंद्रह लाख की फीस देकर पत्रकारिता पढ़ते हैं। मेरी नज़र में इतना पैसा देकर पत्रकारिता पढ़ने वाली पीढ़ी किसी कबाड़ से कम नहीं लेकिन आपका जवाब उनका मनोबल बढ़ा सकता है।

जब आप राजनीति से लौट कर पत्रकारिता में आते थे तो लिखते वक्त दिल दिमाग़ पर उस राजनीतिक दल या विचारधारा की ख़ैरियत की चिन्ता होती थी? क्या आप तटस्थ रह पाते थे? तटस्थ नहीं होते थे तो उसकी जगह क्या होते थे? जब आप पत्रकारिता से राजनीति में चले जाते थे तो अपने लिखे पर संदेह होता था? कभी लगता था कि किसी इनाम की आशा में ये सब लिखा है? मैं यह समझता हूँ कि हम पत्रकार अपने समय संदर्भ के दबाव में लिख रहे होते हैं और मुमकिन है कि कुछ साल बाद वो ख़ुद को बेकार लगे लेकिन क्या आपके लेखन में कभी राजनीतिक निष्ठा हावी हुई है? क्या निष्ठाओं की अदला बदली करते हुए नैतिक संकटों से मुक्त रहा जा सकता है? आप रह सके हैं?

मैं ट्वीटर के ट्रोल की तरह गुजरात सहित भारत के तमाम दंगों पर लिखे आपके लेख का ज़िकर नहीं करना चाहता। मैं सिर्फ व्यक्तिगत संदर्भ में यह सवाल पूछ रहा हूँ। आपसे पहले भी कई संस्थानों के मालिक राज्य सभा गए। आप तो कांग्रेस से लोकसभा लड़े और बीजेपी से राज्य सभा। कई लोग दूसरे तरीके से राजनीतिक दलों से रिश्ता निभाते रहे। पत्रकारों ने भी यही किया। मुझे ख़ुशी है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेसी सरकारों की इस देन को बरक़रार रखा है। भारतीय संस्कृति की आगवानी में तुरही बजाने वालों ने यह भी न देखा कि लोकप्रिय अटल जी ख़ुद पत्रकार थे और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अपने अख़बार वीरअर्जुन पढ़ने का मोह त्याग न सके। कई और उदाहरण आज भी मिल जायेंगे।

मुझे लगा कि अब अगर मुझे कोई दलाल कहेगा या माँ को गाली देगा तो मैं कह सकूँगा कि अगर अकबर महान है तो रवीश कुमार भी महान है। वैसे मैं अभी राजनीति में नहीं आया हूँ। आ गया तो आप मेरे बहुत काम आयेंगे। इसलिए आप यह भी बताइये कि पत्रकारों को क्या करना चाहिए। क्या उन्हें चुनाव लड़कर, मंत्री बनकर फिर से पत्रकार बनना चाहिए। तब क्या वे पत्रकारिता कर पायेंगे? क्या पत्रकार बनते हुए देश सेवा के नाम पर राजनीतिक संभावनाएँ तलाश करती कहनी चाहिए?  ‘यू कैन से सो मेनी थिंग्स ऑन जर्नलिज़्म नॉट वन सर’ !

मैं आशा करता हूँ कि तटस्थता की अभिलाषा में गाली देने वाले आपका स्वागत कर रहे होंगे। उन्हें फूल बरसाने भी चाहिए। आपकी योग्यता निःसंदेह है। आप हम सबके हीरो रहे हैं। जो पत्रकारिता को धर्म समझ कर करते रहे मगर यह न देख सके कि आप जैसे लोग धर्म को कर्मकांड समझकर निभाने में लगे हैं। चूँकि आजकल एंकर टीआरपी बताकर अपना महत्व बताते हैं तो मैं शून्य टीआरपी वाला एंकर हूँ। टीआरपी मीटर बताता है कि मुझे कोई नहीं देखता। इस लिहाज़ से चाहें तो आप इस पत्र को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं। मगर मंत्री होने के नाते आप भारत के हर नागरिक के प्रति सैंद्धांतिक रूप से जवाबदेह हो जाते हैं।उसी की ख़ैरियत के लिए इतना त्याग करते हैं। इस नाते आप जवाब दे सकते हैं। नंबर वन टी आर पी वाला आपसे नहीं पूछेगा कि ज़ीरो टी आर पी वाले पत्रकार का जवाब एक मंत्री कैसे दे सकता है वो भी विदेश राज्य मंत्री। वन्स एगेन ईद मुबारक सर। दिल से।

आपका अदना,

रवीश कुमार

रोहित की चिट्ठी रवीश के नाम 

आदरणीय रविश कुमार जी

नमस्कार.

सर, ट्विटर, फेसबुक, ब्लॉग, फेस टाइम के दौर में आपने चिट्ठी लिखने की परंपरा को ज़िंदा रखा है उसके लिए आप बधाई के पात्र हैं. हो सकता है कि चिट्ठियां लिखने की वजह ये भी हो कि ट्विटर, फेसबुक पे लोग जवाब दे देते हैं और चिट्ठी का जवाब मिलने की उम्मीद न के बराबर रहती है, इस लिए चिट्ठी लिखने का हौसला बढ़ जाता हो. पर हमेशा की तरह एक बार फिर, आपने कम से कम मुझे तो प्रेरित किया ही है कि एक चिट्ठी मैं भी लिखूं – इस बात से बेपरवाह हो कर – कि इसका जवाब आएगा या नहीं.

ये चिट्ठी लिखने के पहले मैंने आपकी लिखी बहुत सी चिट्ठियां पढ़ीं. अभी अभी बिलकुल. इंटरनेट पर ढूंढ कर. एनडीटीवी की वेबसाइट पर जा कर. आपके ब्लॉग को खंगाल कर. एम जे अकबर को लिखी आपकी हालिया चिट्ठी देखी. पीएम मोदी को लिखी चिट्ठी देखी. मुख्यमंत्रियों के नाम आपकी चिट्ठी देखी. विजय माल्या के नाम की चिट्ठी देखी. पुलिस वालों के नाम भी आपकी चिट्ठी देखी.

सर लेकिन बहुत ढूंढने पर भी मैं आपकी वरिष्ठ और बेहद पुरानी सहयोगी बरखा दत्त के नाम की खुली चिट्ठी नहीं ढूंढ पाया, जिसमें आपने पूछा होता कि नीरा राडिया के टेप्स में मंत्रियों से काम करा देने की गारंटी लेना अगर दलाली है – तो क्या आपको दलाल कहे जाने के लिए वो ज़िम्मेदारी लेंगी ?

बहुत तलाशने के बाद भी मैं आपके किसी ठिकाने पर वरिष्ठ पत्रकार और संपादक रहे आशुतोष जी (जो अब आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं) के नाम आपकी कोई खुली चिट्ठी नहीं ढूंढ पाया, जिसमें आपने पूछा होता कि साल-डेढ़ साल तक स्टूडियो में हॉट-सीट पर बैठ कर , अन्ना के पक्ष में किताब लिखना और फिर उस मेहनत कूपन को पार्टी प्रवक्ता की कुर्सी के बदले रिडीम करा लेना अगर दलाली है – तो क्या आपको दलाल कहे जाने के लिए वो ज़िम्मेदारी लेंगे?

सर मैंने बहुत ढूंढा, लेकिन मैं आपके पत्रों में आशीष खेतान के नाम कोई चिट्ठी नहीं ढूढ पाया, जिसमें आपने पूछा होता कि सवालों में घिरे कई स्टिंग ऑपरेशनों, प्रशांत भूषण जी के बताए पक्षपातपूर्ण टू जी रिपोर्ताजों के बीच निष्पक्ष होने का दावा करते अचानक एक पार्टी का प्रवक्ता हो जाना अगर दलाली है – तो क्या वो आपको दलाल कहे जाने की ज़िम्मेदारी शेयर करेंगे ?

सर मैं अब भी ढूंढ रहा हूं. लेकिन राजदीप सरदेसाई के नाम आपका कोई पत्र मिल ही नहीं रहा. जिसमें आपने पूछा हो कि 14 साल तक एक ही घटना की एक ही तरफ़ा रिपोर्टिंग और उस घटना के दौरान आए एक पुलिस अफसर की मदद के लिए अदालत की तल्ख टिप्पणियों के बावजूद, वो हाल ही में टीवी चैनल के संपादक होते हुए गोवा में आम आदमी पार्टी की रैली में जिस तरह माहौल टटोल रहे थे, अगर वो दलाली है, तो क्या राजदीप जी आपको दलाल कहे जाने की ज़िम्मेदारी लेंगे?

सर मैंने बहुत तलाशा. लेकिन मैं उन सब पत्रकार (पढ़ें रिपोर्टर) दोस्तों के नाम आपकी कोई चिट्ठी नही ढूंढ पाया, जिन्हें दिल्ली सरकार ने ईनाम के तौर पर कॉलेजों की कमेटियों का सम्मानित सदस्य बना दिया. सर जब लोग आ कर कहते हैं कि आपका फलां साथी रसूख वाला है, उससे कह के दिल्ली के कॉलेज में बच्चे का एडमिशन करा दीजिए. आपका मन नहीं करता उनमें से किसी से पूछने का कि क्या वो आपको दलाल कहे जाने की ज़िम्मेदारी आपके साथ बांटेंगे ?

पत्रकारों का राजनीति में जाना कोई नई बात नहीं है. आप ही की चिट्ठियों को पढ़ के ये बात याद आई. लेकिन पत्रकारों का पत्रकार रहते हुए एक्टिविस्ट हो जाना, और एक्टिविस्ट होते हुए पार्टी के लिए बिछ जाना – ये अन्ना आंदोलन के बाद से ही देखा. लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ़ थी. मैं भी जाता था अपनी 3 साल की बेटी को कंधे पर ले कर. मैं भीड़ में था. आप मंच पर थे. तब लगा था कि क्रांतिकारी पत्रकार ऐसे होते हैं. लेकिन फिर इंटरव्यू में किरण बेदी को दौड़ाते और अरविंद केजरीवाल को सहलाते आपको देखा तो उसी मंच से दिए आपके भाषण याद आ गए.

क्रांतिकारी से याद आया, आपकी चिट्ठियों में प्रसून बाजपेयी जी के नाम भी कोई पत्र नहीं ढूंढ पाया. जिसमें आपने पूछ दिया हो कि इंटरव्यू का कौन सा हिस्सा चलाना है, कौन सा नहीं, ये इंटरव्यू देने वाले से ही मिल के तय करना अगर दलाली है – तो क्या वो आपको दलाल कहे जाने की ज़िम्मेदारी लेंगे ?

सर गाली तो लोग मुझे भी देते हैं. वही सब जो आपको देते हैं. बल्कि मुझे तो राष्ट्रवादी भी ऐसे कहा जाता है कि जैसे राष्ट्रवादी होना गाली ही हो. और सर साथ साथ आपसे सीखने की नसीहत भी दे जाते हैं. पर क्या सीखूं आपसे ? आदर्शवादी ब्लॉग लिखने के साथ साथ काले धन की जांच के दायरे में फंसे चैनल की मार्केटिंग करना ?

सर कभी आपका मन नहीं किया आप प्रणय रॉय जी को एक खुली चिट्ठी लिखें. उनसे पूछें कि तमाम पारिवारिक-राजनीतिक गठजोड़ (इसे रिश्तेदारी भी पढ़ सकते हैं) के बीच – आतंकियों की पैरवी करने की वजह से, देश के टुकड़े करने के नारे लगाने वालों की वकालत करने की वजह से, लगभग हर उस चीज़ की पैरवी करने की वजह से जो देश के बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को आहत करती हो – अगर लोग आपको दलाल कहने लगे हैं तो क्या वो इसकी ज़िम्मेदारी लेंगे ?

उम्मीद करता हूं आप मेरे पत्र को अन्यथा नहीं लेंगे. वैसे भी आपकी चिट्ठी की तरह सारे सोशल मीडिया ब्लॉग्स और अखबार मेरे लिखे को हाथों हाथ नहीं लेंगे. लेकिन आपकी राजनीतिक/गैर राजनीतिक सेनाएं इस चिट्ठी के बाद मेरा जीना हराम कर देंगी ये मैं जानता हूं. जिन लोगों का ज़िक्र मेरी चिट्ठी में आया है – वो शायद कभी किसी संस्थान में दोबारा नौकरी भी न पाने दें. पर सर मैं ट्विटर से फिर भी भागूंगा नहीं. न ही आपको ब्लॉक कर दूंगा (मुझे आज ही पता लगा कि आपने मुझे ब्लॉक किया हुआ है, जबकि मेरे आपके बीच ये पहला संवाद है, न ही मैंने कभी आपके लिए कोई ट्वीट किया, नामालूम ये कड़वाहट आपमें क्यों आई होगी, खैर).

सर आप भगवान में नहीं मानते शायद, मैं मानता हूं. और उसी से डरता भी हूं. उसी के डर से मैंने आप जैसे कई बड़े लोगों को देखने के बाद अपने आप को पत्रकार लिखना बंद कर दिया था, मीडियाकर्मी लिखने लगा. बहुत से लोग मिलते हैं जो कहते हैं पहले रवीश बहुत अच्छा लगता था, अब वो भी अपने टीवी की तरह बीमार हो गया है. शायद आप को भी मिलते हों. वो सब संघी या बीजेपी के एजेंट या दलाल नहीं होते होंगे सर. तो सबको चिट्ठियां लिखने के साथ साथ एक बार अपनी नीयत भी टटोल लेनी चाहिए, क्या जाने वो लोग सही ही कहते हों?

आपका अनुज

रोहित