हुर्रियत वालों की सुरक्षा वापस लेने का मतलब क्या है ?


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हुर्रियत नेताओं की नेताओं की सुरक्षा वापस लेने का एलान कर दिया गया है लेकिन इस एलान की वाकई कितनी अहमियत है. क्या इससे आतंकवादियों को फायदा मिलेगा ये बड़ा सवाल है. जानकारों का कहना है कि ये इससे कोई खास असर नहीं पड़ेगा.

बीबीसी की खबर के मुताबिक  कश्मीर के पुलवामा ज़िले में सीआरपीएफ़ काफिले पर हुए हमले में 40 जवानों की मौत के बाद रविवार को प्रशासन ने पांच अलगाववादी नेताओं मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़, अब्दुल गनी बट, बिलाल लोन, हाशिम क़ुरैशी और शब्बीर शाह की सुरक्षा वापस ले ली है.पत्रकार अनुराधा भसीन का कहना है कि   पुलवामा में हमले के बाद लिए गए इस फ़ैसले से कश्मीर की ज़मीनी स्थिति में कोई बदलाव नहीं होने वाला है.

खबर के मुताबिक चरमपंथी और हुर्रियत या अलगाववादियों में बहुत फासला है. दरअसल हुर्रियत या अलगाववादी नेताओं और चरमपंथी संगठनों के मकसद एकदम अलग अलग है. जहां बातचीत के जरिये कश्मीर के मसले का हल करना चाहती है वहीं चरमपंथी संगठनों का यकीन है कि ये बंदूक के जोर पर ही मसला हल हो सकता है. यानी एक पूरब है तो दूसरा पश्चिम इनके काम करने का तरीका भी मुख़्तलिफ़ है.

मीरवाइज़ और बिलाल लोन का मामला ऐसा है जिसे देखते हुए उन्हें सुरक्षा दी गई थी. दोनों के वालिद का कश्मीर में कत्ल हुआ था. उसके बाद उन्हें सुरक्षा दी गई थी. दूसरी तरफ प्रोफ़ेसर अब्दुल गनी बट्ट पर हमला हुआ था, तो शायद उन्हें इसी वजह से सुरक्षा दी गई थी. हाशिम क़ुरैशी को भी इसी कारण से सुरक्षा दी गई थी. लेकिन बड़ा सवाल ये हैं कि शबीर शाह तो जेल में हैं, उनकी सुरक्षा हटाने के ऐलान को प्रचार के ज़रिये लोगों को मनाने के अलावा क्या समझा जाए? क्या सरकार ने उन्हें जेल में सुरक्षा दी थी जो हटाई गई.

अलगाववादी नेताओं को नज़रबंद की स्थिति में रखा गया है. इनकी सुरक्षा हो या न हो यह बेमतलब रह जाता है. जिन लोगों को सुरक्षा दी गई उन्हें खतरा किससे था. अगर आतंकवादियों ने हमला किया है तो फिर आतंकवादियों का काम आसान क्यों करना चाहती है सरकार इन लोगों पर हमले का इतिहास रहा है तो अगर उन पर आगे कोई हमले या हादसे होते हैं तो ज़िम्मेदारी किसकी होगी? जाहिर बात है कि इस मामले पर सरकार के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाएगा.

जानकारों का कहना है कि यह बिना सोचे समझे लिया गया फ़ैसला है जिसका मकसद सिर्फ लोगों में विश्वास जताना है. पिछले कुछ सालों में दिखा है कि बीजेपी हुकूमत के लिए कश्मीर चुनावी रणनीति का स्कूल रहा है, जिसे वो पूरे देश में चलाते हैं.

पहले की सरकारों की भी रणनीति रही है हुर्रियत को कमज़ोर करने की. हुर्रियत महज़ एक राजनीतिक अभिव्यक्ति है, चाहे आप उससे राज़ी हों या नहीं. हुर्रियत के होने का मतलब है कश्मीर का एक चेहरा जिससे आप बात कर सकते हैं जिसके ज़रिए आप दुनिया के सामने समाधान की प्रक्रिया अपनाने का संदेश दो सकते हैं

हुर्रियत तो खुद ही क ऐसी संस्था है जिसका यकीन बंदूक में नहीं बल्कि बातचीत में है. हुर्रियत के कमज़ोर होने का मतलब है कट्टरपंथियों का मजबूत होना. आप जैसे जैसे उन्हें कमज़ोर करते जाएंगे, चरमपंथी संगठनों की ताक़त उतनी ही मज़बूत और पुख्ता होती जाएगी.

अगर कश्मीर के मुद्दे को बातचीत और अमन से सुलझाना है तो आपको हुर्रियत को अहमियत देनी ही होगी. उसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. काश्मीर की शांति प्रक्रिया में उनका किरदार अहम ही माना जाएगा.

सरकार हुर्रियत के साथ बातचीत की शुरुआत करके बाकी पक्षों को भी उसका हिस्सा बना सकती है.

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