लाभ के पद की असलियत समझने के लिए बस इसे एक बार पढ़ लें.

नई दिल्ली :  लाभ के पद के बारे में आजकल बड़ी बहस हो रही है. जाहिर बात है कि हम सब उस बहस को सुन सुन कर ये मानने लगे हैं कि लाभ के पद पर रहना बड़ा भारी गुनाह है. लेकिन गुनाह क्यों है. क्यों इसे गलत बताया गया. मूल भावना क्या है इसके पीछे.

दरअसल माना ये गया कि आपको कुछ ऐसे पद सरकार दे देती है जिनसे आपको फायदा होता है. जब फायदा होगा तो सदन में आप सरकार पर सवाल नहीं उठाएंगे . उसके बिकाऊ पिट्ठू बन जाएंगे. इससे विधायकों की आज़ादी पर बुरा असर पड़ता है.

है ना अजीब बात. जिस देश में विधायकों पर पार्टियों की तानाशाही चलती हो. जहां दलबदल विरोधी कानून हो जहां वोट डालने के लिए व्हिप जारी किया जाता हो वहां लाभ के पद पर अजीब से कानून का क्या मतलब. किसी जमाने में लाभ के पद जैसी चीज़ों का मतलब होता था क्योंकि विधायक या सांसद स्वतंत्र थे. वो अपनी पार्टी की राय से हटकर कदम उठाने के लिए स्वतंत्र होते थे. लेकिन अब तो पार्टियां धीरे धीरे जन प्रतिनिधियों को अपना गुलाम बना चुकी हैं. चुनाव पार्टी के एक नेता के नाम पर जीता जाता है बाकी उस नेता के रबर स्टांप या चमचे बने रहते हैं. ऐसे में लाभ का पद क्या किसी के फैसले बदलवाएगा.

खैर लाभ का पद क्या है इसे लेकर भी जबरदस्त पगलैटियत फैली है. जिस सरकार का जो मन चाहे उसे लाभ का पद कह देती है.

पत्रकार रवीश कुमार लिखते हैं कि अगर लाभ के पद की नैतिकता इतनी अहम है तो तो फिर व्हीप क्यों है, क्यों व्हीप जारी कर विधायकों को सरकार के हिसाब से वोट करने के लिए कहा जाता है. व्हीप तो खुद में लाभ का पद है. किसी सरकार में दम है क्या कि व्हीप हटा दे. व्हीप का पालन न करने पर सदस्यता चली जाती है. बक़ायदा सदन में चीफ़ व्हीप होता है ताकि वह विधायकों या सांसदों को सरकार के हिसाब से वोट के लिए हांक सके.

दर असल संविधान में लाभ का पद परिभाषित नहीं है. इसकी कल्पना ही नहीं है. इसका मतलब है जो पद लाभ के पद के दायरे में रखे गए हैं वे वाकई लाभ के पद नहीं हैं क्योंकि लाभ के पद तो कानून बनाकर सूची से निकाल दिया जाता है!

अदालती आदेश भी लाभ के पद को लेकर एक जैसे नहीं हैं. उनमें निरंतरता नहीं है. बहुत से राज्यों में हुआ है कि लाभ का पद दिया गया है. कोर्ट ने उनकी नियुक्ति को अवैध ठहराया है, उसके बाद राज्य ने कानून बना कर उसे लाभ का पद से बाहर कर दिया है और अदालत ने भी माना है. फिर दिल्ली में क्यों नहीं माना जा रहा है?

कई राज्यों में retrospective effect यानी बैक डेट से पदों को लाभ के पद को सूची से बाहर किया गया. संविधान में प्रावधान है कि सिर्फ क्रिमिनल कानून को छोड़ कर बाकी मामलों में बैक डेट से छूट देने के कानून बनाए जा सकते हैं. फोटो क्लियर हुआ?

कांता कथुरिया, राजस्थान के कांग्रेस विधायक थे. लाभ के पद पर नियुक्ति हुई. हाईकोर्ट ने अवैध ठहरा दिया. राज्य सरकार कानून ले आई, उस पद को लाभ के पद से बाहर कर दिया. तब तक सुप्रीम कोर्ट में अपील हो गई, सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार भी कर लिया. विधायक की सदस्यता नहीं गई. ऐसे अनेक केस हैं.

2006 में शीला दीक्षित ने 19 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया. लाभ के पद का मामला आया तो कानून बनाकर 14 पदों को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दिया. केजरीवाल ने भी यही किया. शीला के विधेयक को राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिल गई, केजरीवाल के विधेयक को मंज़ूरी नहीं दी गई.

मार्च 2015 में दिल्ली में 21 विधायक संसदीय सचिव नियुक्त किए जाते हैं. जून 2015 में छत्तीसगढ़ में भी 11 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया जाता है. इनकी भी नियुक्ति हाईकोर्ट से अवैध ठहराई जा चुकी है, जैसे दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली के विधायकों की नियुक्ति को अवैध ठहरा दिया.

छत्तीसगढ़ के विधायकों के मामले में कोई फैसला क्यों नहीं, काई चर्चा क्यों नहीं. जबकि दोनों मामले एक ही समय के हैं. आपने कोई बहस देखी? कभी देखेंगे भी नहीं क्योंकि चुनाव आयोग भी अब मोहल्ले की राजनीति में इस्तेमाल होने लगा है. सदस्यों को अपना लाभ चाहिए, इसलिए ये आयोग के बहाने लाभ के पद की पॉलिटिक्स हो रही है.

मई 2015 में रमन सिंह सरकार ने 11 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया. इसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं है. न्यू इंडियन एक्सप्रेस में 1 अगस्त 2017 को ख़बर छपी है कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने सभी संसदीय सचिवों की नियुक्ति रद्द कर दी है क्योंकि इनकी नियुक्ति राज्यपाल के दस्तख़त से नहीं हुई है. दिल्ली में भी यही कहा गया था.

हरियाणा में भी लाभ के पद का मामला आया. खट्टर सरकार में ही. पांच विधायक 50 हज़ार वेतन और लाख रुपये से अधिक भत्ता लेते रहे. पंजाब हरियाणा कोर्ट ने इनकी नियुक्ति अवैध ठहरा दी. पर इनकी सदस्यता तो नहीं गई.

राजस्थान में भी दस विधायकों के संसदीय सचिव बनाए जाने का मामला चल ही रहा है. पिछले साल 17 नवंबर को हाईकोर्ट ने वहां के मुख्य सचिव को नोटिस भेजा है. इन्हें तो राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है.

मध्य प्रदेश में भी लाभ के पद का मामला चल रहा है. वहां तो 118 विधायकों पर लाभ के पद लेने का आरोप है. 20 विधायकों के लिए इतनी जल्दी और 118 विधायकों के बारे में कोई फ़ैसला नहीं? 118 विधायकों के बारे में ख़बर पिछले साल 27 जून 2017 के टेलिग्राफ और टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी थी कि 9 मंत्री ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के दायरे में आते हैं.

2016 में अरुणाचल प्रदेश में जोड़ तोड़ से बीजेपी की सरकार बनती है. सितंबर 2016 में मुख्यमंत्री प्रेमा खांडू 26 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त कर देते हैं. उसके बाद अगले साल मई 2017 में 5 और विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त कर देते हैं.

अरुणाचल प्रदेश में 31 संसदीय सचिव हैं. वह भी तो छोटा राज्य है. वहां भी तो कोटा होगा कि कितने मंत्री होंगे. फिर 31 विधायकों को संसदीय सचिव क्यों बनाया गया? क्या लाभ का पद नहीं है? क्या किसी टीवी चैनल ने बताया आपको? क्या अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपराध किया है, भ्रष्टाचार किया है?

क्या 31 संसदीय सचिव होने चाहिए? क्या 21 संसदीय सचिव होने चाहिए? जो भी जवाब होगा, उसका पैमाना तो एक ही होगा या अलग-अलग होगा. अरविंद केजरीवाल की आलोचना हो रही है कि 21 विधायकों को संसदीय सचिव क्यों बनाया? मुझे भी लगता है कि उन्हें नहीं बनाना चाहिए था. पर क्या कोई अपराध हुआ है, नैतिक या आदर्श या संवैधानिक पैमाने से?

केजरीवाल अगर आदर्श की राजनीति कर रहे हैं, इसलिए उन्हें 21 विधायकों को संसदीय सचिव नहीं बनाना चाहिए था तो फिर बाकी मुख्यमंत्री आदर्श की राजनीति नहीं कर रहे हैं? क्या वो मौज करने के लिए मुख्यमंत्री बने हैं और लालच देने के लिए संसदीय सचिव का पद बांट रहे हैं?

अफसोस की बात ये हैं कि आम आदमी पार्टी ने जब विधायकों को संसदीय सचिव बनाया तो चिट्ठी पर लिखकर दिया कि उन्हें इसके बदले में कोई लाभ नहीं मिलेगा. ये लाभ दिया भी नहीं लेकिन चुनाव आयोग जोश में है. पता नहीं उसने क्या नतीजा निकाला और राष्ट्रपति को भेज दिया. इसके बाद से आप लाभ के पद को लेकर उछल रहे हैं. लेकिन उछलने से पहले सोचिए कि सच में इस पद में लाभ का मतलब क्या हुआ जिसमें वेतन न मिले. भत्ते न मिले. मुफ्त में सरकारी काम करने के लिए सिर्फ गाड़ी दी जाए.