आसान नहीं है देश में एक साथ चुनाव, ज़रा ये भी तो समझ लो मोदी जी


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नई दिल्ली : पीएम नरेन्द्र मोदी की ओर से हाल के दिनों में कई मौकों पर एक साथ आम चुनाव और सभी विधानसभा एक साथ कराने की अपील के बाद सोमवार को बजट सत्र के पहले दिन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषण में भी इसका जिक्र हुआ. इस तरह सरकार ने अपनी मंशा की गंभीरता को एक बार फिर पेश किया. लेकिन कई सवाल हैं जिनका जवाब अभी मिलना बाकी है. हो सकता है सियासी फायदे के लिए पीएम मोदी देश में एक साथ चुनाव कराने की तमन्ना रखते हों लेकिन ये आईडिया मुमकिन नहीं है कि काम करे.

लेकिन ये कुछ बातें हैं जिनका जवाब मिले बगैर एक साथ चुनाव का आइडिया बकवास लगता है.

  1. 1967 तक देश में एक साथ चुनाव हुआ करते थे. लेकिन अब हालात दूसरे हैं. सरकारें पांच साल चलें ज़रूरी नहीं. इसी देश में कभी 13 दिन तो कभी चार महीने सरकारें बनी हैं. आम सहमति न होने पर दिल्ली विधानसभा की तरह 49 दिन के बाद किसी ने जल्द चुनाव कराए तो क्या होगा. क्या दोबारा चुनाव होने के बाद जो नयी विधानसभा बनेगी उसे पांच साल पूरे नहीं मिलेंगे ? अगर नहीं मिले तो संविधान के अनुच्छेद 84 का उल्लंघन नहीं होगा ?
  2. एक साथ चुनाव कराने का मतलब है कुछ राज्यों में वक्त से पहले और कुछ राज्यों में वक्त के बाद चुनाव होंगे.
  3. 3. अगर वक्त से पहले चुनाव होते हैं तो विधानसभा को क्या कहकर भंग किया जाएगा. लोगों ने 5 साल के लिए वोट दिया है. राइट टू रिकॉल के तहत अगर जल्द सरकार नहीं बदल सकती तो फिर चुनाव जल्द कैसे हो सकते हैं.
  4. एक साथ चुनाव कराने का सबसे बड़ा खतरा संघीय गणराज्य को होगा. भारत जैसे संघीय देश में चुनाव में एक बड़े नेता के नाम पर वोट मांगने का चलन बढ़ेगा. ये अमेरिका के प्रेसीडेशियल सिस्टम की तरह हो जाएगा और मुख्यमंत्रियों की शक्तियां कम होने लगेंगी क्योंकि उनकी सत्ता केन्द्रीय अधिनायकों के रहमोकरम पर रहेगी.
  5. बड़ी पार्टियों की ताकत बढ़ेगी और राज्यों की शक्तियां धीरे धीरे कमज़ोर होने लगेंगी. अलग अलग राज्यों की अलग अलग इच्छाओं और आकांक्षाओं के लिए काम नहीं हो सकेगा.

इन सभी आशंकाओं को दरकिनार करते हुए बीजेपी चाहती है कि चुनाव जल्द हों. पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ धीरे धीरे नीचे गिर रहा है. वो चाहती है कि वक्त रहते चुनाव हो जाएं. अगर देश में एक साथ चुनाव होते हैं उसे आसानी होगी.

साल 2018 के अंत में अगर आम चुनाव कराने की घोषणा के साथ राज्यों के विधानसभा चुनाव कराने की पहल हुई तो मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में विधानसभा होने तय हैं. उनका टर्म पूरा हो रहा है.

इसके अलावा जो राज्य तैयार होंगे

बिहार: नीतीश कुमार ने लगातार कहा है कि वह लोकसभा चुनाव के साथ बिहार में विधानसभा चुनाव कराने को तैयार हैं. सूत्रों के अनुसार नीतीश कुमार इसके लिए तैयारी भी कर रहे हैं.

महाराष्ट्र: शिवसेना के साथ लगातार टकराव के बीच राज्य के सीएम देवेन्द्र फडणवीस ने भी संकेत दिया है कि वह साल के अंत में चुनाव कराने को तैयार हैं.

ओडिशा: ओडिशा का टर्म हालांकि 2019 के मई-जून में पूरा होता है लेकिन नवीन पटनायक ने इस मुद्दे पर साफ कर दिया है कि अगर 6 महीने पहले चुनाव कराने को कहा जाता है तो वह इसके लिए तैयार हैं.

तेलंगाना: एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने पर सबसे पहले सहमति देने वालों में टीआरएस नेता ही शामिल थे. उनके लिए टर्म से 6 महीने पहले चुनाव करवाना कठिन नहीं होगा.

तमिलनाडु: तमिलनाडु में भी राजनीतिक हालात अस्थिर हैं और तमाम दल वहां जल्द चुनाव की मांग कर रहे हैं. सरकार भी वहां अल्पमत में है. ऐसे में वहां भी लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने का विकल्प खुला हुआ है.

सिक्किम: यहां भी मौजूदा विधानसभा का टर्म 2019 में खत्म हो रहा है. ऐसे में यहां भी साल के अंत में चुनाव कराने में कोई परेशानी नहीं होगी.

कुछ राज्यों में आगे खिसकाए जा सकते हैं चुनाव

साथ ही इस साल अक्टूबर से पहले होने वाले 4 राज्यों कर्नाटक, त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय का चुनाव 2023 में 6 महीने आगे बढ़ाया जा सकता है ताकि इन राज्यों के भी चुनाव साथ हो सकें.

आयोग ने किया तैयारी का दावा

एक साथ चुनाव कराने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर होगी और आयोग भी इस बहस में कूदते हुए पिछले दिनों संकेत दे चुका है कि वह साल के अंत में एक साथ चुनाव कराने को तैयार रहेगा. चुनाव आयोग ने कहा था कि 2018 सितंबर के बाद वह साथ चुनाव कराने को तैयार है. लेकिन सरकार की इस कोशिश को जमीन पर उतारने के लिए राजनीतिक सहमति की भी जरूरत पड़ेगी जो इतना आसान नहीं होगा.

1967 तक साथ-साथ होते थे सारे चुनाव

1951-52, 1957, 1962 और 1967 तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ होते थे. लेकिन 1967 में राजनीतिक उथलपुथल के बाद परिस्थितियां बदल गईं और फिर चुनाव अलग-अलग होने लगें. तब से लेकर अब तक हर साल कई चुनाव होते हैं और सरकार का तर्क है कि इससे न सिर्फ विकास योजनाओं पर प्रतिकूल खर्च होता है बल्कि संसाधनों का भी गलत इस्तेमाल होता है. अब अगर फिर से एक साथ चुनाव कराते हैं तो दोबारा कब तक साथ चुनाव हो सकेंगे कोई नहीं जानता. वैसे भीइससे कोई फर्क नहीं पड़ता सिवा इसके कि पार्टियों का खर्च बचेगा.