गलतियों को छिपाने के लिए सरकारी कंपनियों को दांव पर लगा रही है सरकार

नोटबंदी और नयी वित्त नीतियों से एक के बाद एक बैंक घाटे में जा रहे हैं. उनके पैसे लेकर कर्जदार भाग रहे हैं. और हालात ये है कि अब सरकार इन बैंकों को बचाने के लिए देश की नवरत्न कंपनियों को दांव पर लगा रही है. ये कंपनियां अपनी गाढ़ी कमाई इन बैंकों के शेयर खरीदने पर लगा रही है. जाहिर बात है ये कंपनियां देश की जनता की धरोहर हैं और सरकार आपने कर्मों पर पर्दा डालने के लिए इन्हें डुबोने से भी नहीं चूक रही.

 

ताजा मामला एलआईसी की के खजाने पर हाथ साफ करने का है. इस साल मार्च महीने तक IDBI बैंक का कुल नॉन परफॉर्मिंग असेट यानी एनपीए 27.95 फीसदी बढ़कर करीब 55,600 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है. इसके एक साल पहले यह महज 21.25 फीसदी पर था. एनपीए के दबाव में ही वित्त वर्ष 2017 की चौथी तिमाही के दौरान IDBI बैंक ने कुल 5,662.76 करोड़ रुपये का शुद्ध घाटा उठाया था.

 

IDBI की इस स्थिति के चलते मई में केन्द्रीय रिजर्व बैंक ने पहली बार किसी सरकारी बैंक की माली हालत सुधारने के लिए उसे प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन (पीसीए) के लिए चुना. इस फैसले के लिए रिजर्व बैंक ने IDBI का लगातार पांच वित्त वर्ष के दौरान घाटा उठाने के तथ्य को भी केंद्र में रखा.

 

केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2018 के दौरान 10,610 करोड़ रुपये बैंक की माली हालत सुधारने के लिए बतौर कैपिटल इंफ्यूजन खर्च किए. इसके बावजूद अभीतक IDBI बैंक की स्थिति में सुधार होने के कोई संकेत नहीं मिले हैं. गौरतलब है कि IDBI बैंक में  केंद्र सरकार की 81 फीसदी हिस्सेदारी है और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले साल संसद में बयान दिया था कि सरकार अपनी हिस्सेदारी को कम कर 50 फीसदी के नीचे ले जाने की कवायद करेगी. लेकिन बीते एक साल के दौरान IDBI बैंक में हिस्सेदारी खरीदने के लिए किसी निजी खिलाड़ी ने हाथ आगे नहीं बढ़ाया.

 

 

IDBI बैंक को अगले कुछ वर्षों में एक बड़ी रकम की जरूरत है जिससे वह अपने गंदे कर्जों को पटाकर अपना लेखा-जोखा सुधार सके. यह रकम उसे किसी निजी खिलाड़ी को हिस्सेदारी बेचने पर नहीं मिल रही. ऐसी स्थिति में LIC से होने वाला 11 से 13 हजार करोड़ रुपये का निवेश बैंक की स्थिति सुधारने के लिए बेहद अहम होगा.

 

इस सौदे से एक बात पूरी तरह साफ हो रही है कि  केंद्र सरकार ने एक सरकारी बैंक को डूबने से बचाने के लिए यह फॉर्मूला निकाला है. इस फॉर्मूले के तहत उसे अपने खजाने से बिना पैसा खर्च किए सरकारी बैंक को बचाने का काम करना है.

 

हालांकि इस निवेश से LIC के पैसे पर खतरा मंडराने लगेगा. इस खतरे के चलते जीवन बीमा निगम में पड़ा आम आदमी का पैसा खतरे में आ जाएगा. आर्थिक जानकारों को इस बात का डर है कि LIC का IDBI बैंक में निवेश से LIC पर खतरे के साथ-साथ बीमा धारकों को पैसे लौटाने की उसकी क्षमता पर भी खतरा मंडराने लगेगा.

 

यह स्थिति एक और तथ्य के साथ और खतरनाक हो सकती है क्योंकि बीते कुछ वर्षों के दौरान LIC को अपनी पॉलिसी पर बोनस का भुगतान करने में समस्या का सामना करना पड़ा रहा है. LIC द्वारा IDBI बैंक में यह निवेश करने के विरोध में बैंक कर्मचारियों के संगठन ने हाल ही में कार्यकारी वित्त मंत्री पीयूष गोयल को पत्र लिखकर कहा था कि जिस तरह से देश के कई बैंक एनपीए की समस्या से जूझ रहे हैं ठीक उसी तरह LIC भी बड़े एनपीए और गंदे निवेश की समस्या से जूझ रहा है.

 

 

ऐसी स्थिति में यदि LIC पर IDBI बैंक को डूबने से बचाने की जिम्मेदारी लादी जाती है तो संभव है कि वह इस दबाव के तले खुद मुश्किलों से घिर जाए. LIC पर मुश्किलें बढ़ने से जाहिर है कि देश में लगभग 38 करोड़ जीवन बीमा पॉलिसी धारकों के सबसे अहम निवेश पर भी खतरा मंडराने लगेगा.

 

गौरतलब है कि किसी सरकारी बैंक को बचाने का दारोमदार केवल  केंद्र सरकार के कंधों पर है. यदि कोई सरकारी बैंक अपने कर्मचारियों के गलत फैसलों के चलते एनपीए की समस्या में चला गया है तो  केंद्र सरकार को चाहिए कि वह ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कड़ा कदम उठाए. वहीं किसी बैंक का बैड लोन इसलिए एकत्र हो गया है कि देश की आर्थिक स्थिति में बदलाव हुआ जिसके चलते बैंक द्वारा इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र का कर्ज बैड लोन बना है तो  केंद्र सरकार को चाहिए कि वह अपने खजाने से बैंक के लिए कैपिटल का इंतजाम करे. दोनों ही स्थिति में किसी अन्य सरकारी संस्था में पड़े आम आदमी के पैसे पर खतरा डालते हुए बैंक कर्मचारियों की गलती अथवा देश की आर्थिक स्थिति पर पर्दा डालने का कदम उठाना सवालों के घेरे में है.

 

यदि IDBI को बचाने की यह कवायद सरकार का 21 में 18 बीमार बैंकों को बचाने का फॉर्मूला है तो क्या इसके बाद केंद्र सरकार एनपीए के बोझ से दबे 17 अन्य बैंकों को बचाने के लिए 17 सरकारी कंपनियों पर दांव खेलने की तैयारी में है?

 

देश में कुल मिलाकर 257 पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स (पीएसयू-सरकारी कंपनी) काम कर रही हैं. इनमें इंडियन ऑयल, ओएनजीसी और कोल इंडिया  केंद्र सरकार के लिए सबसे ज्यादा मुनाफा बटोरने वाली कंपनियां हैं. इसके अलावा हिंदुस्तान पेट्रोलियम और मैंगलोर रिफाइनरी और पेट्रोकेमिकल्स भी  केंद्र सरकार के लिए बड़ा मुनाफा कमाने वाली कंपनी हैं. वहीं  केंद्र सरकार की हिंदुस्तान फर्टिलाइजर कॉरपोरेशन और पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन भी उसकी वार्षिक कमाई का बड़ा हिस्सा लाती हैं.

 

ये सभी कंपनियां  केंद्र सरकार की टॉप 10 कंपनियों में शुमार हैं. केंद्र सरकार के अपने आंकड़ों के मुताबिक उसकी 257 सरकारी कंपनियों ने जहां 2015-16 के दौरान कुल 1 लाख 14 हजार 239 करोड़ रुपये का मुनाफा बटोरा वहीं 2016-17 के दौरान इन्हें 1 लाख 27 हजार 602 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ. इन कंपनियों का 2017-18 के दौरान 11.7 फीसदी मुनाफा बढ़ा.

 

वहीं मौजूदा समय में सरकारी बैंकों की सूची में तीन बैंकों को छोड़कर सभी बड़े बैंक एनपीए की समस्या से जूझ रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या  केंद्र सरकार ने देश में सरकारी बैंकों की स्थिति सुधारने के लिए सरकारी कंपनी का सहारा लेने का फॉर्मूला तैयार किया है और LIC-IDBIडील उसी फॉर्मूले को परखने का पहला नमूना है.

 

क्या LIC के बाद  केंद्र सरकार मुनाफा दे रही अन्य सरकारी कंपनियों का रुख करेगी? वहीं सवाल यह भी खड़ा होता है कि यदि  केंद्र सरकार को इस नीति को परखने की जरूरत थी तो उसने अपनी तमाम नवरत्न कंपनियों को छोड़कर सिर्फLIC को क्यों चुना? क्या LIC में पड़ा जनता का पैसा उसके इस फैसले की सबसे बड़ी वजह है? राहुल मिश्रा का लेख आजतक से साभार

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