पटाखों पर रोक के लिए कोर्ट नहीं मोदी सरकार ज़िम्मेदार, आखें खोल देने वाला लेख


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शुरुआत धनतेरस की शुभकामना से. कभी गभी लगता है कि लोगों की सेहत को लेकर सिस्टम बड़ा गंभीर है. लेकिन क्यावो वाकई गंभीर है.  दो दिन बाद दिवाली है. इस बार सुप्रीम कोर्ट ने ग्रीन पटाखे ही बेचने की अनुमति दी है. और ऐसे पटाखे पाये नहीं जाते हैं. लोग दो घंटे के लिए सिर्फ पिछले साल के बचे हुए पटाखे चला सकेंगे. अच्छा लगता है कि लोगों को सेहत के लिए कड़े फैसले लिए जाते हैं. ये फैसला तो हो गया लेकिन उन फैसलों का क्या होगा जो ले लिए गए होते तो शायद ये फैसला न लेना पड़ता.

बड़े लोगों की बड़ी कारें

दिल्ली में सबसे ज्यादा परेशानी वाहनों के धुएं से होने वाले प्रदूषण से हैं. इसमें भी सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार डीजल वाहन हैं. डीजल वाहनों में भी सबसे ज्यादा धुआं एसयूवी फैलाती हैं. ज्यादातर एसयूबी डीजल से चलती है. सल्फर डाई आक्साइड और नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड  को हवा में घोलने के लिए यही गाड़ियां जिम्मेदार हैं. इसके कारण  ये गाड़ियां सबसे ज्यादा जगह लेती हैं इसके कारण बाकी वाहनों की रफ्तार भी धीमी होती है और वो धुआं छोड़ते रहते हैं.  सबसे ज्यादा प्रदूषण दिल्ली की हवा में वाहनों के चलने से होता है. कुल प्रदूषण का करीब 40 फीसदी (प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े ) वाहनों से आता है वाहन दो तरह से प्रदूषण फैलाते हैं. एक धुएँ से और दूसरा धूल उड़ाकर. इसमें भी एसयूबी दोनों काम दूसरे वाहनों के मुकाबले दुगुने से ज्यादा करती है.

इसका राजनैतिक पहलू देखें तो जब ज्यादा गाड़ियां बिकती हैं तो सरकार खुश होती है. नोटबंदी केबाद खुद प्रधानमंत्री मोदी ने वाहनों की बिक्री पर खुशी जताई. जब सरकार ज्यादा वाहन चाहती हो तो उसपर नियंत्रण कैसे लगेगा.

कुछ साल पहले एमआरटीएस यानी सार्वजनिक त्वरित परिवहन व्यवस्था यानी एमआरटीएस का विचार आया. कहा गया कि मेट्रो जैसे वाहन और उनसे जुड़े सार्वजनिक सड़क वाहनों के इस्तेमाल से सड़कों पर दबाव कम होगा. मेट्रो पर अरबों खर्च हो चुके हैं और हो रहे हैं लेकिन सड़कों पर कम होने वाल वाहनों का बोझ कम नहीं हो रहा. इसके उलट सरकार मेट्रो को महंगा बना रही है. जाहिर बात है लोग निजी वाहनों की तरफ ही बढ़ेंगे.

लकड़ी कंडे जलाने से होने वाला प्रदूषण

डब्लू एचओ को मुताबिक देश में चार लाख लोग घर के अंदर होने वाले प्रदूषण यानी धुएं से मर जाते हैं. ये धुआं वातावरण में जाता है ते और परेशानी खड़ी करता है. देश आईसीएमआर के रिसर्च के मुताबिक देश में वायु प्रदूषण के पीछे ये बड़ा कारण है. इससे बचने के लिए देश में एलपीजी के दामों पर सब्सिडी दी गई थी. गरीबों की सब्सिडी को मुफ्त खोरी मानने वाली सरकारों ने ये सब्सिडी खत्म कर दी और लगातार कर रही हैं. जाहिर बात है महंगी एलपीजी ने लोगों को दोबारा उपले जलाने और लकड़ी के इस्तेमाल की तरफ खींचा है. लेकिन सरकार ने इस पर उल्टा कदम उठाया. हालात सबके सामने हैं.

औद्योगिक प्रदूषण

देश में बिजली नहीं है. जब बिजली नहीं होती तो जनरेटर चलता है. बड़ी बड़ी कंपनियां , कल कारखाने, हाउसिंग सोसायटीज, से लेकर खेती तक देश को जनरेटर का सहारा है. जनरेटर  चलाने इसलिए पड़ते हैं क्योंकि सरकार नाकाबिल साबित हुए है सबको बिजली देने में. आगे पताऊंगा कि किस तरह और कितना डीजल जनरेटर खतरनाक हैं. डीजल जनरेटर औद्योगिक प्रदूषण का सबसे अहम स्रोत है. दिल्ली के प्रदूषण  में 98 फीसदी सल्फर डाई आक्साइड और 60 फीसदी नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड उद्योंगो से ही आती है. उद्योगों के प्रदूषण में जनरेटर के अलावा होटल रेस्त्रां से होने वाला प्रदूषण शामिल है.

दिल्ली में कूड़ा

दिल्ली में कूज़ा डंप करने के तीन प्रमुख स्थान हैं. गाज़ीपुर, ओखला और भलस्वा. इन तीनों ही जगह पर अक्सर आग लगी रहती है . इसके अलावा नगर निगम के करम् चारी अलग अलग जगहों पर कूड़े में आग लगा देते हैं. इससे भी वायु प्रदूषण होता है.

दिल्ली के बाहर का प्रदूषण

पंजाब और हरियाणा में धान की पराली या पुआल जलाने से होने वाले प्रदूषण पर ज्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है लेकिन इतना समझना पड़ेगा कि प्रदूषण एक बड़े हिस्से को प्रभावित करता है . वो देश की सीमाओं से बाहर भी जाकर हमला कर सकता है. ऐसे में दिल्ली में पटाखे चलाने से होने वाले प्रदूषण पर रोक का कोई मतलब नहीं होता.

रोक से कुछ शायद ही बदले

दिल्ली जैसे छोटे भूभाग पर पटाखों पर रोक लगा देने से कुछ खास नहीं बदलने वाला. जब पंजाब से पराली का धुआं दिल्ली आ सकता है तो रोहतक से पटाखे का धुआं दिल्ली क्यों नहीं आ सकता. मोदी नगर से धुआं क्यों नहीं आ सकता. जाहिर बात है कि दिवाली पर होने वाला धुआं कम नहीं होता लेकिन साल भर होने वाले इस प्रदूषण पर लगाम लगा दी जाती तो शायद पटाखे जलाने की परंपरा पर खतरा नहीं आता लेकिन सरकार का वाहनों, उद्योंगों से प्यार और पैसे बचाने के लिए कमाऊ लाला वाली मानसिकता ने हालात ऐसे  बना दिए हैं.

सरकार चाहती है गाड़ियां जमकर बिकें. नेता एसयूवी मे घूमना भी चाहते हैं. गैस पर सब्सिडी देने में कंजूसी आड़े आती है इसलिए पटाखे बीच में फंस गए हैं. सुप्रीम कोर्ट तो वही करेगा जो उसके सामने रखे गए तथ्यों के आधार पर सही होगा. उसे गाली देने से अचछा है सरकार के कान खींचे जाएं.

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